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अविराम हैयर सैलून

awiram haiyar sailun

शिव कुमार गांधी

शिव कुमार गांधी

अविराम हैयर सैलून

शिव कुमार गांधी

पहाड़ के नीचे एक छोटे से शहर की लगभग अंतिम दुकान थी

दुकान में अंदर की ओर बनी खिड़की

जिस पर बैंगनी फूलों के फीके रंग वाली चादर के बने पर्दे थे

वहाँ मेरे चेहरे पर उस्तरा चलाते हुए वह ख़ुद ही को बार-बार आईने में देखता था

मैंने उससे पूछा तुम किस कवि के यहाँ से भटक कर आए हो

दिन के अंत में उजाला शाम के रंग जैसा था

वह खुद की आँखों के वृत्त से घिरता था

उसकी आँखों में गहरा काजल था

यह अविराम हेयर सैलून था और दुकान में आईने के कोने में उसके बचपन की फ़ोटो लगी थी, उसकी फ़ोटो और उसके चेहरे के बीच जैसे कोई लंबा आलाप हो जिसे लेने के लिए वह बार-बार आईने में देखता हो और आलाप के बीच फ़ोटो और ख़ुद की आँखों के अंतराल में कोई धागे बाँधने की कोशिश करता हो

आलाप के धागों की संगत में मुकेश की आवाज़ थी पीछे के दृश्यों में संगत उसके शहर की थी

पास में गेहूँ के खेत थे फिर खुला मैदान जहाँ झाड़ियाँ, बबूल, सर्प होते थे

पास की बस्ती के बच्चे जहाँ यदा-कदा खेलते हुए दिखते थे

दूर एक ढाबा था जहाँ हाईवे पर चलने वाले ट्रक ड्राइवर कभी-कभी सुस्ताते हुए दिखते थे

जिन पर पत्थर के खदानों की धूल मँडराती रहती थी

सूरज पहाड़ के पीछे से आता था, रास्तों में सूखी चट्टानें थीं, अधिक आबादी के इस छोटे शहर में पानी कम था, इच्छा आदिम थी अपने पाने में बोदी और अधूरी, यहाँ न्याय इतना नहीं था कि मनुष्य की गरिमा की कल्पना के समकक्ष उसे रखा जा सके, शहर में जीवन अपनी सजावट और उसकी उकताहट में अपनी नियति के साथ प्रदेश के नक़्शे पर पाबंद था जिसमें सुख लोथड़े की तरह अटका हुआ था

न्याय, पानी, इच्छा, पहाड़, जीवन, पहचान यह सब रोज़-रोज़ समय की धूप में इतना भुरभुराता था कि पहचान की क्रिया जीवन की एक धुँधली अंतर्वस्तु थी

वह आईने में ख़ुद को बार-बार देखता था

अपनी देह को इशारे में अलग-अलग कोण पर रख

जैसे कि प्रतिबिंब को परखता हो कि यह ठीक वही है

वही जो वह होना चाहने से ज़्यादा हो

कि अभी इस पर धूप का कौन-सा रंग गिर रहा है :

पास के पेड़ का हरा अभी परछाईं में अपनी रंगत इसमें मिला रहा है कि नहीं

और आँखों के नीचे झुर्रियों तक लगे काजल पर रोशनी ठीक कोण से चमक रही है या नहीं

उसने अपना एक हाथ आईने पर रखा ख़ुद के चेहरे को छूते हुए, छूते हुए हाथ का दृश्य जैसे एक शिल्प था जिसके बाहर आवाज़ों की संगत, पीछे पहाड़ जहाँ शहर ख़त्म हो रहा था, दिन के उजाले का रंग शाम के रंग में जर्द होता, बैंगनी फूलों वाले फीके परदे के पीछे से छौंकी हुई सब्ज़ी की तेज़ गंध उठ रही थी और अविराम हेयर सैलून अपने अक्षांश पर इस आईने और हाथ के साथ निष्कंप घूमते हुए इस शहर की परिक्रमा कर रहा था।

स्रोत :
  • रचनाकार : शिव कुमार गांधी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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