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अतिथि-सत्कार

atithi satkar

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

अन्य

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तिरुवल्लुवर

अतिथि-सत्कार

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    81

    योग-क्षेम निबाह कर, चला रहा घर-बार।

    आदर करके अतिथि का, करने को उपकार॥

    82

    बाहर ठहरा अतिथि को, अन्दर बैठे आप।

    देवामृत का क्यों हो, भोजन करना पाप॥

    83

    दिन दिन आये अतिथि का, करता जो सत्कार।

    वह जीवन दारिद्रय का, बनता नहीं शिकार॥

    84

    मुख प्रसन्न हो जो करे, योग्य अतिथि-सत्कार।

    उसके घर में इन्दिरा, करती सदा बहार॥

    85

    खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष जो खाय।

    ऐसों के भी खेत को, काहे बोया जाया॥

    86

    प्राप्त अतिथि को पूज कर, और अतिथि को देख।

    जो रहता, वह स्वर्ग का, अतिथि बनेगा नेक॥

    87

    अतिथि-यज्ञ के सुफल की, महिमा का नहिं मान।

    जितना अतिथि महान है, उतना ही वह मान॥

    88

    'कठिन यत्न से जो जुड़ा, सब धन हुआ समाप्त'।

    यों रोवें, जिनको नहीं, अतिथि-यज्ञ-फल प्राप्त॥

    89

    निर्धनता संपत्ति में, अतिथि-उपेक्षा जान।

    मूर्ख जनों में मूर्ख यह, पायी जाती बान॥

    90

    सूंघा ‘अनिच्च’ पुष्प को, तो वह मुरझा जाय।

    मुँह फुला कर ताकते, सूख अतिथि-मुख जाय॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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