अटपटे सपनों की बातें

atapte sapnon ki baten

पीयूष ठक्कर

पीयूष ठक्कर

अटपटे सपनों की बातें

पीयूष ठक्कर

फिर किसी घड़ी

उजले दिन

ढलती सांझ

रातबिरात-

(अकसर ख़ुशनुमा माहौलों में)

अपनी क़िस्मत से ऊब चुके हमें

अटपटे सपने आने लगते हैं

किसी सपने में

संतप्त दोपहर है

सब्जी मार्केट है-

गोरसामली बेचती छोकरी है

और हम उस गोरसामली का रंग बन गए हैं

अथवा तो

किसी सपने में म्यूनिसिपाल्टी का बुलडोज़र है

वीरान झोपड़े हैं

मकानों की धँसी पड़ी भींतें हैं

बेघर लोगों की लाचारी है रोष है,

और हम उन लोगों की आँखों में विद्रोह की कणी बन दमक उठे हैं

अथवा तो

किसी सपने में

चिड़ती हुई बहुमंज़िली इमारत है

मज़दूरन है

नवजात शिशु है

और हम लोरियों की छाया बन पथरा गए हैं

अथवा तो

किसी सपने में

सपने की समुचित क़िस्मत लुटाते हुए

सरेआम मनुष्य होने का सपना आता है

हाँ सपने आते हैं

अटपटे ढंग के

अटपटे रंग-रूप के

सपने आते हैं

कोचमेन अली डोसा के उस पत्र की तरह

हीरामण की तीसरी कसम की तरह

अधूरे खुरदुरे काव्य की

अप्रत्याशित अंतिम पंक्त्ति की तरह

आते हैं सपने!!!

स्रोत :
  • पुस्तक : तनाव-148 (पृष्ठ 37)
  • संपादक : वंशी माहेश्वरी
  • रचनाकार : पीयूष ठक्कर
  • संस्करण : 2021

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