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अस्तेय

astey

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

अन्य

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और अधिकतिरुवल्लुवर

    281

    निन्दित जीवन से अगर, इच्छा है बच जाय।

    चोरी से पर-वस्तु की, हृदय बचाया जाय॥

    282

    चोरी से पर-संपदा, पाने का कुविचार।

    लाना भी मन में बुरा, है यह पापाचार॥

    283

    चोरी-कृत धन में रहे, बढ़्ने का आभास।

    पर उसका सीमारहित, होता ही है नाश॥

    284

    चोरी के प्रति लालसा, जो होती अत्यन्त।

    फल पाने के समय पर, देती दुःख अनन्त॥

    285

    है गफलत की ताक में, पर-धन की है चाह।

    दयाशीलता प्रेम की, लोभ पकड़े राह॥

    286

    चौर्य-कर्म प्रति हैं जिन्हें, रहती अति आसक्ति।

    मर्यादा पर टिक उन्हें, चलने को नहिं शक्ति॥

    287

    मर्यादा को पालते, जो रहते सज्ञान।

    उनमें होता है नहीं, चोरी का अज्ञान॥

    288

    ज्यों मर्यादा-पाल के, मन में स्थिर है धर्म।

    त्यों प्रवंचना-पाल के, मन में वंचक कर्म॥

    289

    जिन्हें चौर्य को छोड़ कर, औ’ किसी का ज्ञान।

    मर्यादा बिन कर्म कर, मिटते तभी अजान॥

    290

    चोरों को निज देह भी, ढकेल कर दे छोड़।

    पालक को अस्तेय व्रत, स्वर्ग देगा छोड़॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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