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गंगा प्रसाद विमल

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और अधिकगंगा प्रसाद विमल

    पर समुद्र निरंतर उधर बुलाता है मुझे

    सूर्यास्त के बाद

    अपने रंगवान भ्रम दिखाने के लिए।

    उधर मछलियाँ हैं

    जल सतहें हैं

    समुद्र जल में एक चंचल दृष्टि

    जीवन प्रतीकों में उभरती चलती हुई

    समुद्रामंत्रण को स्थगित करता हुआ मैं—

    इधर नदियों में रुक-रुक कर बहता हुआ जल

    छापता चलता है समीपवर्ती दृश्य

    मैं जानता हूँ

    मुझे एक समय गोले में बंद कर दिया गया है

    उसी में मेरे लिए सत्य

    इतिहास, दर्शन और कलाएँ सीमित हैं।

    रुके हुए वसंत और नदी गति में

    धीमे जीवन में

    प्रतीक्षा की आग में झुलसते वन में

    चलने के लिए बाध्य हूँ।

    उधर एक समुद्र बुलाता है मुझे

    जल-सतहों के नीचे नगर-घर हैं

    और एक अदेखा संसार है

    जो मुझसे परे है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 41)
    • रचनाकार : गंगाप्रसाद विमल
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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