अपराधबोध

apradhabodh

कपिल भारद्वाज

कपिल भारद्वाज

अपराधबोध

कपिल भारद्वाज

मैंने सोचा था कि

बिना किसी अपराध बोध के गुजारूँगा अपनी ज़िंदगी

कविता सोचते हुए और नॉवेल लिखते हुए।

किसी पर बोझ नहीं बनूँगा

ना किसी रेंगते हुए कीड़े को अपने जूतों के नीचे

मसलूँगा

किसी खारे पानी के भरे मटके से बुझा लूँगा

जेठ के महीने मे अपनी प्यास

मगर किसी दूसरे का हिस्सा नहीं मारूँगा।

मैंने सोचा था जीवन में पेड़ ना लगा पाऊँ चाहे

लेकिन अपनी हवस के लिए भी (ज़रूरत नहीं, हवस)

एक डाली भी ना काटूँगा किसी राह में आए पेड़ की।

मैंने सोचा था कि गाड़ी, घोड़े, बंगला कोठी

इनके बिना भी रह सकता हूँ

किसी दूसरे की छत्र छाया की बजाए

अकेला, निस्पंद रह लूँगा

मगर चाँद पर प्लाट लेने की कभी नहीं सोचूँगा।

मैंने सोचा था गर्मियों में मच्छरदानी लगाकर सोया रहूँगा

सर्दियों की शाम थोड़ी तेज व्हिस्की पीकर, ख़ामोशी की भाषा ओढ़कर

टहला करूँगा गरम कपड़े पहनकर, सारी रात बागीचे में।

लेकिन यह सब तुम्हारे साथ ही होना था

प्रियजनों की हथेलियों में काँटे उगते हुए समय ही कितना लगता है

(कंधों पर मुलायम हाथ ही अच्छे लगते हैं)

इसलिए तुम्हारे साथ ही होना था ये सब

तुम नहीं हो तो जीवन एक षड्यंत्र है

चारों तरफ मारामारी है, आपाधापी है

आधी नहीं सारी दुनिया पापी है।

तुम नहीं हो तो एक सीरियल है जीवन

जिसमें काम है, कामसूत्र है, वहम है

धर्म है ढकोसला, रंग हैं ख़तरनाक।

तुम्हारे बिना मैं एक अपराध भावना से पीड़ित हूँ

बिना कोई अपराध किए।

स्रोत :
  • रचनाकार : कपिल भारद्वाज
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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