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अंतिम

antim

अनुवाद : तुषार धवल

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

अन्य

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और अधिकदिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

    कभी-कभी अपनी ही कविताओं के गट्ठर देखकर

    हताश हो जाता हूँ मैं। काग़ज़ों में क्या सचमुच बोध के

    अवशेष रह जाते हैं? वह निर्विकार ऊर्जा,

    वह निर्विकार मन, वह प्रवाह शिव का,

    दिक्काल के तनाव से निकला हुआ

    और जो अदृश्य हो गया हो अपनी ही हथेलियों में

    अपने ही चेहरे की।

    पीतल के अंधे दीप स्तंभों के आगे बजती रहती है

    बहरी शहनाई

    गर्भ गृह में पूजा करती रहती है

    ख़ूब सजी धजी स्त्री

    कि जैसे वह ख़ुद ही पूनम की रात हो

    नक्षत्रों की नथ, कुंडल, कंगन, चंद्रहार

    काली चंदेरी साड़ी पहन

    घने जूड़े में रहस्यमय फूलों का गजरा बाँधे

    मैं खो जाता हूँ काग़ज़ों में

    अपनी ही आत्मकथा के जंगलों में

    मृत्यु के कष्टमय पल में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैजिक मुहल्ला खंड एक (पृष्ठ 55)
    • रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2019

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