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अंतर्लोचन

antarlochan

अनुवाद : एम. रंगय्या

दाशरथि

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    तम का चीर ओढ़कर

    क्षुधा की चोली पहनकर

    शोक से आकुल लोक-बाला को

    बंदी बना रहा है काल-असुर

    तारे देख रहे हैं

    गीदड़ पुकार रहे हैं

    भोले जीवों की रक्षा करने में

    असमर्थ बन

    पीछे हट रहे हैं

    निराशाएँ ज्वाला बन बल रही हैं

    दुराशाएँ दुंदुभी बन बज रही हैं

    क्या आशा की आयु घट गई?

    क्या अवनि अशांति-यवनिका में छिप गई?

    यह कथा नहीं प्रोज्वल सत्य है

    हृदय में संचित विकलता है

    इसका भार तब तक ढोएँगे?

    इसीलिए समर का संचालन करेंगे?

    नज़रों के ‘सर्चलाइट’ के बीच में

    व्याप्त यह अंधकार की गंगा

    अंत:लोचन के द्युति-पथ में

    लुप्त हो जाएगी पल भर में

    यह भयंकर व्यथित धरणी

    अब प्रियकर बनेगी यह रजनी

    व्याप्त हो रही नव कांति की ज्वालाएँ

    वे मानवता-मंदार की मालाएँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 123)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : दाशरथि
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985

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