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आँखों के अनजान रंग

ankhon ke anjan rang

नवीन रांगियाल

अन्य

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नवीन रांगियाल

आँखों के अनजान रंग

नवीन रांगियाल

और अधिकनवीन रांगियाल

    दिन की सबसे आख़िरी आवाज़ खो जाती है

    शाम होते ही डूब जाते हैं सारे भरोसे

    और सड़कें हटा लेती हैं

    अपने ऊपर बिछाया हुआ ज़िंदगी का सारा कबाड़

    अहाते सुनाई देते हैं देर रात—

    चिड़ियाँ की आवाज़ों की तरह

    नाख़ून नोचते-कुतरते हैं—

    यादें पुरानी जब

    हार-फूल उतारकर

    देवता जब मुक्त हो जाते हैं—

    दुनिया की पहरेदारी से

    और ईश्वर सो जाता है

    दिन भर की दृष्टि से थक कर

    ठीक उस घड़ी में

    अपनी लौ को आँखों की हथेलियों पर रखकर

    बैठ जाना चाहिए—

    देह की सबसे चुप जगह में

    जहाँ पैरों में बाँध दीं गई हो अनंत प्रतीक्षाएँ

    आँखों को लटका दिया गया हो घुप्प अँधेरे में

    उसकी याद की झीनी परत के उस तरफ़

    वहाँ

    उस जगह

    एक छाया है—

    उसके होने की सबसे धुँधली आस में

    आत्म के सबसे आख़िरी नगर में

    तह के पीछे एक और तह में

    कुछ नहीं के बाद

    एक और कुछ नहीं में

    दरवाज़े के आर-पार

    आदमी और ईश्वर से परे

    उसने अपनी सारी कविताएँ इसी तरह ढूँढ़ीं—

    देह के सबसे आख़िरी पर्दे में—

    जीवन के सबसे उजाड़ अरण्य में—

    आँखों के सबसे अनजान रंग में...

    स्रोत :
    • रचनाकार : नवीन रांगियाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए द्वारा चयनित

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