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आँख से खुरचते ही

ankh se khurachte hi

मलयज

अन्य

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मलयज

आँख से खुरचते ही

मलयज

और अधिकमलयज

    उन छोटे-छोटे पलों को बटोरने की कोशिश में हूँ

    जो सड़क पर भागते दृश्यों में खो जाते पत्थर से

    दब कर पिस जाते बेतहाशा साँस लेने में छूट जाते

    उन घिरी हुई साँझों और सवेरों की चिटकती हुई

    तस्वीरों में अक्सर कुछ होने में

    कुछ हो जाते सच के पास

    गोया सांत्वना के हाथ

    ठंड में सिकुड़े एक दूसरे से दूर दूर

    आग की हल्की-सी छुअन की तरह घुटन के भीतर

    मचलती एक ज़रा-सी हरकत की तरह

    उभर कर टूटते हैं टूट कर चमकते हैं चमक कर

    तड़प कर छिटक कर गिर गिर गिर जाते हैं...

    आँख से

    खुरचते ही ज़मीन पर

    पड़ी हुई रेखा उठ खड़ी होती है तमक कर

    चीज़ें जो बाहर थीं सपाट चिकनी और बेपरवा

    एक अर्थ के आस-पास सिर धुनती हैं

    मैं अंदर आता हूँ

    जो चुपचाप सड़ रहा था ज़ीने पर

    उसे बरा कर उस ख़ाली जगह के पास

    एक धड़कते हुए धब्बे की मटमैली ख़ामोशी में

    दीवार से सट कर गोड़ पसारे उस

    एक तन्हा एक उस चेहरे पर

    काली-मोटी लकीरों में भूल से अनखिंची रह गई

    उस एक बिना रंग की हँसी के पड़ोस में

    एक पल की वह एक जीवित और बेबाक छलछल

    जहाँ रिस रही थी

    एक दबंग समय की कुल बारिश

    आसमान के ढह जाने तक

    जिस पल की नोक पर

    दाँत भींजे मैं भीग रहा हूँ

    वह कहाँ है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 44)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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