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आँख

ankh

हेमंत कुकरेती

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और अधिकहेमंत कुकरेती

    देखने के लिए नज़र चाहिए

    ठीक हो दूर और पास की तो कहना ही क्या!

    बाज़ार को दूर से देखने पर भी लगता है डर

    मेरा घर तो बाज़ार के इतने पास है

    कि उजड़ी हुई दुकान नज़र आता है

    ठेठ पड़ोस का घर हो जाता है सुदूर का गृह

    चीख़ता है कि उसकी कक्षा से दूर रहूँ

    जबकि मेरे घर के हर कोने की है अपनी परिधि

    कई बार ऐसा हुआ कि नहाने के लिए पानी लेने गया

    और साबुन के भाव बिकते-बिकते बचा

    यह तभी हुआ कि मैंने अपनी क़ीमत नहीं लगाई

    ख़ुद को बिकने से बचाए रखना रोज़ का हादसा

    दूर से दो विदेशी पैर आकर

    उठाईगीरी पर उतर आते हैं अपनी नग्नता दिखाकर

    उनसे लड़ना मेरी मजबूरी है या

    उजागर होता है ओछापन

    सोने के लिए दिन भर की नींद मुफ़्त में देनी पड़ती है मुझे

    जागने के लिए सपने हैं, उनसे ही कहता हूँ

    इतने हल्ले में आओगे तो कैसे सुन सकूँगा तुम्हें पहचानूँगा कैसे

    वे जाने कैसे पहचान लेते हैं मुझे

    किसी दिन कुचले हुए मिलेंगे मेरे सपने एक दुकान के नीचे

    दूसरी पर उनका सौदा हो रहा होगा

    कैसा विनिमय है चीज़ों का

    गेहूँ कपास हुआ सिंथेटिक कपड़ा होकर बिकने लगा

    बच्चे जिन बिस्कुटों के बदले राज़ी होते थे अपनी नींद तोड़ने के लिए वे रूमाल हो गए

    फिर भी पैंट इतनी ऊँची हो गई कि भूख जितनी ढीठ

    क़मीज़ें इतनी महँगी कि उन्हें पहनने की ज़रूरत ही नहीं रही

    आदमी भी वस्तु हो गया, देखा तो सोचा

    देखने के लिए आँख चाहिए ऐसी जो पैसे के पार देख सके

    स्रोत :
    • पुस्तक : चाँद पर नाव (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : हेमंत कुकरेती
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2003

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