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अश्वेत बस्ती से

ashwet basti se

अनुवाद : अक्षय कुमार

मार्टिन कार्टर

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मार्टिन कार्टर

अश्वेत बस्ती से

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    मैं आया हूँ

    बीते हुए कल की

    अंधियारी काली बस्ती से।

    आततायियों की घृणा

    और आत्म तिरस्कार से प्रताड़ित—

    भाग आया हूँ, मैं,

    घने जंगलों की उस घुप्प अँधेरी

    झोंपड़ी की छटपटाहट से दूर

    तमाम चोटों को झेलता,

    क्रूरता भरे लंबे दिनों को नापता,

    वेदना की रातों को चीरता

    कुलाँचें भरता

    निकल आया हूँ, मैं

    भविष्य की खुली सड़क पर।

    यदि तुम नहीं देख पाते मुझे

    तो कोई बात नहीं

    बस सुनो, ध्यान से सुनो

    मेरी आवाज़।

    उस काली बस्ती में, मैं था निर्वस्त्र

    किसी नवजात शिशु की तरह।

    किसी पत्थर या सितारे की तरह

    बिल्कुल आवरणहीन।

    वह एक पालना था

    समय के झूले में डोलते

    अंधियारे दिनों का—

    किसी ग़ुलाम की उधड़ी हुई

    पीठ की तरह ही लहूलुहान।

    कितना खुरदरा था वह फ़र्श,

    जिस पर घिसटता फिरता था मैं

    घुटनों के बल—

    जिस की धूल फाँक-फाँक कर

    किया करता था मैं अपनी

    जड़ों की तलाश।

    खोजता था सूखे पत्तों के निशान,

    तलाशता था, किसी खोए हुए फूल की ख़ुशबू

    हाँ वह मैं ही था

    नंगे पैरों घूमता,

    मेरी मुलाक़ात होती कुछ अजीब से

    चेहरों से।

    वे चेहरे,

    जो अक्सर ही जाते हैं

    डरावने स्वप्नों में,

    या फिर तेज़ बुखार में

    सन्निपात की अवस्था में।

    ऐसा लगता था कि

    यह दुनिया हो जाएगी पूरी तरह,

    उलट-पलट एक दिन।

    कोई नहीं जान पाएगा कि

    ज़मीन है कहाँ,

    और किधर है आसमान!

    कोई नहीं पहचान पाएगा

    कि इतने सारे घायल दिलों में से

    कौन-सा है उस का दिल—

    अजनबी से लगने वाले

    इन भयानक चेहरों में से

    कौन-सा है उस का अपना?

    हवा भारी है किस की कराहों से

    और कौन भटक रहा है दर-ब-दर

    आसमानों के बीच?

    पीड़ा-भरे गीत

    यों तो सदा ही रहे हैं विद्यमान,

    धरती पर कहीं कहीं।

    किसी के घर में गूँज उठते हैं

    ढोलक के स्वर

    तो बिगुल की आवाज़ों के साथ ही

    कहीं मच जाता है कोहराम।

    दूर कहीं गुनगुनाती,

    महिलाओं का संगीत

    एकाएक बदल जाता है सन्नाटे में

    अचानक फूट पड़ता है क्रंदन।

    कुछ लोग कहते हैं इसे,

    क़िस्मत का खेल

    तो कुछ मानते हैं इसे

    हवा में भटकती आत्माओं का असर

    या फिर भूत-प्रेतों की माया।

    लेकिन सच्चाई तो यह है

    कि यह एक विशाल दुनिया है

    जो घूम रही है तेज़ गति से—

    जाने कितने मनुष्य

    फँसे हैं इस झंझावात में।

    वे, जो जन्मे

    चिंताओं के बीच,

    अत्याचार ने चीर कर रख दिया

    जिनका अस्तित्व,

    मसल कर फेंक दिया गया जिन्हें

    सूखे पत्तों की तरह।

    हाँ, यह संसार है

    कितना विशाल, कितना क्रूर

    जो तेज़ी से घूम रहा है एक चक्र की तरह।

    बेचैनियाँ लेकर आती है सुबह,

    सूख गयी है संवेदनाओं की नमी

    कलौंच की तरह तलहटी में चिपक कर

    जम गई है भूख,

    बस गई है हर तरफ़

    कीच, काई और सड़ांध,

    हर सुबह आती है ले कर

    बेचैनियों का हुजूम।

    जंगलों के आर-पार फैले

    धुँधलके के बीच, बैठा मैं

    सोचने लगता हूँ, कभी-कभी

    कि कहाँ गुम हो गई है रोशनी?

    जाने कहाँ खो गई है

    चिड़ियों की चहचहाहट?

    लेकिन, तभी दिखाई दे जाता है मुझे

    पत्तों की ओट में छुपा

    एक छोटा-सा तारा—

    पूरे आकाश को

    अपने आप में समेट लेने को आतुर।

    एक नन्हा सा आइना—

    प्रकाश की एक छोटी किरण,

    जैसे अंधियारे नियति के गर्भ से

    फूट पड़ा हो कोई प्रकाश-बीज

    स्वर्ग की तरह जाज्वल्यमान।

    हाँ, मेरा हृदय भी तो इसी तारे

    के जैसा ही, जूझ रहा था।

    चारों ओर अंधकार में घिरा

    टक्कर ले रहा था सारी दुनिया से।

    वह एक चिनगारी थी, मेरे स्वप्नों की

    जो दूर-दूर तक फैले इस धुँधलके को

    चीरती हुई बढ़ती जा रही थी, बेधड़क।

    साँझ ने, लेकिन तभी पसार दिया

    अपना आँचल।

    ढक लिया हरी पत्तियों को,

    अँधेरी नीली चादर ने।

    ग़ुम होती गई सारी हरियाली

    परछाइयों के बढ़ते ही गए अक़्स।

    इस प्रकार

    मैंने लिया एक और जन्म।

    हठीला, स्वभाव से उग्र, मैं

    बदहवास सा चीख़ता रहा

    किसी गंदी बस्ती में।

    वह एक शहर था, कहने को तो विशाल

    लेकिन घर के नाम पर थी

    मेरे पास, बस एक ताबूत के बराबर की जगह।

    पास में बहती एक नदी,

    कुछ जेलें और अस्पताल

    शराब के नशे में डूबे,

    मौत के चँगुल में फड़फड़ाते,

    लोग।

    हाकिमों की नफ़रत भरी नज़रें—

    मंत्रों और प्रार्थना के नाम पर

    देवताओं को धोखा देते

    पादरी और पुजारी।

    और मैं,

    किसी कुत्ते की तरह चीथड़ों में लिपटा

    शरीर के ज़ख़्मों को धूल से सहलाता

    भटकता फिर रहा था—

    भूख से बेहाल,

    दुनिया से दुखी,

    ज़िंदगी से नाराज़।

    अपनी माँ की कोख से जन्मा

    छोटा-सा बच्चा था, मैं।

    नाक-नक़्श में उसी के जैसा,

    उस के जिगर का टुकड़ा।

    कितना ख़ून बहाया था, उसने

    मुझे जन्म देते समय!

    उफ़, कैसा दर्द था वह।

    जो घंटों चला, महीनों बढ़ा

    और फैलता ही चला गया

    साल-दर-साल,

    गढ़ता गया मेरा जीवन।

    हाँ, इसी दर्द के ताने-बाने में

    गुँथी है, मेरी दास्तान

    मेरे चेहरे, मेरी पलकों पर

    कुरेद डाले हैं, इसने

    जाने कैसे-कैसे अजीब निशान

    चलता रहा यों ही, ये सिलसिला।

    आख़िरकार, ही गई

    परीक्षा की वह घड़ी।

    समय जैसे ढल गया था लोहे के साँचों में।

    हथौड़ों की चोटों ने बना दिया,

    लोगों को इस्पात।

    उनके दिल, सहते-सहते मार

    हो गये मज़बूत

    और भावनाएँ, बर्फ़ की तरह सफे़द

    बिल्कुल सर्द!

    और, इस प्रकार

    एक बार फिर शामिल हो गया मैं

    गुमनाम चेहरों की, उस हज़ारों की भीड़ में।

    उन अलामतों में जुड़ गया मेरा भी नाम

    जिनसे यह दुनिया थी परेशान—

    ख़ुशी जैसे सभी के दिलों से हो गई थी, ग़ायब।

    चाँद की छाँव में,

    अभिसारिकाओं के ही थिरकते हैं क़दम।

    संगीत की विप्लवी तान तो

    मुखरित होते ही बन जाती है एक सिसकन।

    रात के सन्नाटे भरे उस माहौल में

    गूँजने लगते हैं सवाल-दर-सवाल।

    आग को जैसे दे रहे हों चुनौती,

    चंद तिनके और बीज।

    ललकार रहे हों जीवन को, जैसे

    बचपन और चिता

    और, आज उथल-पुथल की इस घड़ी में

    जब धरती बदल रही है करवटें

    दुनिया हो गई है, पूरी तरह विक्षिप्त।

    अलग-अलग स्वरों में गूँजने लगी है

    एक ही रागिनी

    लोगों के दिल धड़क रहे हैं

    एक ही तान पर।

    मेरे घर का खुरदुरा फ़र्श

    चिपड़ियों में उधड़-उधड़ कर

    लेने लगा है एक नया आकार।

    इस उथल-पुथल के बीच

    मेरे सामने फिर कर खड़ा हो जाता है

    अंधियारी बस्ती का अपना वह जीवन,

    वह अपमान।

    उठा कर जड़ देता हूँ उसे, मैं

    उन्हीं लोगों के मुँह पर

    जिन्होंने दिया है मुझे, आज तक महज़

    तिरस्कार।

    हाँ, अश्वेत बस्ती से आया हुआ—

    मैं वही बालक हूँ

    जो बड़ा हो गया है अब, और खड़ा है

    पौरुष की दहलीज़ पर।

    हाँ, मैंने सीख लिया है

    उँगलियों का सही इस्तेमाल

    और ढालने लग गया हूँ, अपने जिस्म को

    आज़ादी के साँचे में।

    यह सच है कि मैं आया हूँ,

    किसी अंधियारी अश्वेत बस्ती से

    आततायियों की घृणा

    और हीनता से प्रताड़ित।

    अपनी आत्मा पर लगे घावों के साथ ही

    अवतरित हुआ हूँ, इस धरती पर मैं।

    ज़ख़्मी है मेरा शरीर

    परंतु, ललक रही है प्रलय

    मेरे इन हाथों में।

    मेरी निगाह घूमती है

    क़ौमों के इतिहास पर

    परखता हूँ मैं स्वप्नों की उस संपदा को,

    चिनगारियों के उन झरनों को।

    गौरव गाथाएँ दे जाती हैं कुछ ख़ुशी, लेकिन

    लोगों के कष्ट कर जाते हैं, मुझ को, दुखी।

    मैं ख़ुश हूँ धनवानों की दौलत पर—

    लेकिन परेशान, ग़रीबों की ग़रीबी से।

    हाँ, आया हूँ मैं बीते हुए कल की

    उस काली बस्ती से।

    मेरी पीठ पर लदा है अंधियारे का बोझ,

    लेकिन टिकी हैं मेरी निगाहें

    भविष्य की उजास पर।

    मैं बढ़ रहा हूँ, उसकी तरफ़

    समेट कर अपनी पूरी ताक़त।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 225)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : मार्टिन कार्टर
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

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