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अनंत ध्वनियाँ

anant dhwaniyan

उपासना झा

उपासना झा

अनंत ध्वनियाँ

उपासना झा

स्मृतियाँ केवल अतीत की छाँह भर नहीं होतीं

वे होती हैं जीवन का अब तक हुआ संवर्द्धन

गढ़ ली गई कई मूर्तियाँ

समय के साथ भग्नावशेष मात्र हुईं

लेकिन उनकी स्तुतियाँ गूँजती हैं अब भी

शब्द ब्रह्म है यह पढ़ा था मैंने

और जीवन ने सिखाया अन्न ब्रह्म है

लेकिन असल में तो ब्रह्म केवल पीड़ा है

सृष्टि के सबसे मधुरतम क्षणों का

उन्नयन होता है केवल पीड़ा में

ईश्वर नामक कल्पना ने उपहार में दी थी पीड़ा

कि हम याद करते रहे उसे

और जाप करते रहे मुक्ति-मंत्र का

स्मृतियाँ होती हैं जीवन का इतिहास

किसी यम और चित्रगुप्त को

कोई बही नही रखनी पड़ती,

हम चुनते हैं अपना स्वर्ग-नर्क अपनी स्मृतियों से

***

तुमने कहा था कि एक तारा चुन लेना चाहिए

हर स्त्री को और समेट रखना चाहिए अपना आकाश

स्त्री के अंतस् में बहते हैं कई-कई प्रशांत महासागर

उसे बन जाना चाहिए उर्ध्वगामिनी

उसे हँसना चाहिए ज़ोर से

उसकी हँसी में बह जाने चाहिए लोक-लाज

जानते हो, कई बार

चुने हुए तारे असल में धूमकेतु होते हैं

और दे जाते हैं अपनी ही ऊर्जा से जलती हुई इच्छाएँ

हँसी को अट्टहास में परिणत होते देखना

कंठ से रोष भी फूटता है सस्वर

छिन्नमस्ता भी हँसी थी अपना ही मुंड हाथ में लेकर

***

ग्रीष्म, शरद, शिशिर और हेमंत के बीच

एक ऋतु ऐसी भी आती है

जिसमें खाना-पीना-जीना हो जाता है असंभव

आयुर्वेद में कहते हैं कि कफ़ का बाहुल्य हो तो

रक्त नहीं केवल कफ़ ही बनता है

तो यह क्या है कि केवल ऊब और निराशा

बहती है देह में

नींद से उठते ही हताशा कंधे पर बैठ जाती है

अरुचियों का भी उपाय संभव है,

लेकिन दर्शन, वेद, पुराण और विज्ञान ने भी

कोई उपाय नहीं सुझाया है

सृष्टि की हर स्त्री को यह अबूझ ऋतु

कभी भी कहीं भी ग्रस लेती है

हवन के धूम्र जैसी

कंठ में, नेत्रों में, प्राण में रहती है यह ऋतु प्रज्ज्वलित

***

देह क्या मर जाती है जब मर जाती है आत्मा

जीवित रहना केवल साँस लेना भर हो सकता है क्या

कई धुनें और कई राग जिस देह में उमगते थे

उनके स्वर कहाँ खो जाते हैं

प्रेम छूटने के बाद क्या सागर भी सूखते होंगे

सुना है एक सागर मृत है और एक काला भी

तुमने कहा था कि प्रेम और देह दोनों

बोलते-पढ़ते हैं अलग भाषाएँ

स्पर्श की भाषा अलग होती है आँसुओं की भाषा से

सब भाषाएँ गड्डमगड्ड हो गई हैं अब

और इन्हें पढ़ना नहीं आता

किसी भी स्त्री को

***

जीवन प्रतीक्षा में रुकी हुई साँस है

मैंने तुम्हारे हर प्रश्न के उत्तर में यही कहा था

और तुम मुस्कुराकर सिर हिला देते थे

वह सहमति थी या नकारना

मैं नहीं पूछती थी

निर्निमेष तुम्हें देखते रहना सुख हो सकता है

तुम नहीं मान पाते थे

प्रतीक्षा पूर्ण होगी तो क्या करोगी

होता था तुम्हारी दृष्टि में

इस क्षण को रोक रखूँगी

कब तक कह तुम बीच में हँस देते थे

कुछ भी नहीं होता आदि से अंत तक

प्रेम भी मार्ग में हो जाता है विचलित, विघटित

बचा रहेगा अंतरिक्ष के माथे पर

सूरज की लाल गोल बिंदी

जला करेगी पृथ्वी अनंत...

***

संसार के सब युद्ध लड़े गए

स्त्रियों की सूनी आँखों पर

उनके शिशुओं की मृत देहों पर

मापचित्रों और नक्शों के पीछे से

झाँकती रहती हैं असंख्य उदास आँखें

इतिहास लिखा जीती हुई सेनाओं ने

ट्रॉय की हेलेन का रूप

द्रौपदी का गर्व और क्लियोपेट्रा का मद

युद्ध के बताए गए कारण

हारी हुई सेनाओं ने उद्घोष किया

सत्य है! सत्य है!

तबसे दुनिया के हर युद्ध का कारण हैं स्त्रियाँ

देह बनी उनकी युद्धस्थल अनंत

***

प्रेम में डूबी हुई स्त्री की आँखें

होती हैं दीप्त नक्षत्रों-सी धवल

कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का

उत्थान-पतन बन जाते हैं उनके अश्रु

उनका स्वेद बन जाता है स्फटिक

उन नक्षत्रों की लौ से गढ़ते हैं पुरुष :

कई चित्र, कई कवित्त, कई गद्य

प्रेम में डूबी स्त्रियाँ बनती है प्रेरणा

पुरुषों ने ऐसे समर्पण का उत्तर दिया है

छल से...

म्लान होकर सिर झुकाए

प्रेम और प्रतीक्षा शिथिल पड़ जाते हैं

स्त्री बन जाती है अंत में विसर्जन भी

स्रोत :
  • रचनाकार : उपासना झा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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