अनागत

anagat

केदारनाथ सिंह

इस अनागत को करें क्या

जो कि अक्सर

बिना सोचे, बिना जाने

सड़क पर चलते अचानक दीख जाता है

किताबों में घूमता है

रात की वीरान गलियों बीच गाता है।

राह के हर मोड़ से होकर गुज़र जाता

दिन ढले—

सूने घरों में लौट आता है,

बाँसुरी को छेड़ता है

खिड़कियों के बंद शीशे तोड़ जाता है

किवाड़ों पर लिखे नामों को मिटा देता

बिस्तरों पर छाप अपनी छोड़ जाता है।

इस अनागत को करें क्या

जो आता है, जाता है!

आजकल ठहरा नहीं जाता कहीं भी,

हर घड़ी, हर वक़्त खटका लगा रहता है

कौन जाने कब, कहाँ वह दीख जाए

हर नवागंतुक उसी की तरह लगता है!

फूल जैसे अँधेरे में

दूर से ही चीख़ता हो

इस तरह वह दरपनों में कौंध जाता है

हाथ उसके

हाथ में आकर बिछल जाते

स्पर्श उसका

धमनियों को रौंद जाता है।

पंख

उसकी सुनहली परछाइयों में खो गए हैं

पाँव

उसके कुहासे में छटपटाते हैं।

इस अनागत को करें क्या हम

कि जिसकी सीटियों की ओर

बरबस खिंचे जाते हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 96)
  • संपादक : परमानंद श्रीवास्तव
  • रचनाकार : केदारनाथ सिंह
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 1985

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