आदिवासी स्त्रियाँ : छह कविताएँ

adiwasi striyan ha chhah kawitayen

वंशी माहेश्वरी

वंशी माहेश्वरी

आदिवासी स्त्रियाँ : छह कविताएँ

वंशी माहेश्वरी

 

एक

वे स्त्रियाँ
बीहड़ रास्तों को नंगे पाँव
नंगी ज़िंदगी को पार करती
अनादि गीत
अनादि काल से गा रही हैं

उनके उज्ज्वल चेहरों पर
उत्साह का झरना बहता है
उनकी हँसी में
बिखरती है आकाश-गंगा
उन्होंने बाँध रखा है
आकाश को अपने बालों में 
अटूट हैं उनके राग-विराग भंडार
वे रमणीक उम्मीदों के बाहर खड़ीं
शब्दों में चलने वाली
संवेदना से बेख़बर
अपने अंतर्मन की अंतर्धारा में डूबी हैं
उनके धूल-धूसरित चेहरों पर
सभ्य उँगलियों के
असंख्य चित्र
अवसाद के सौंदर्य में चित्रित हैं

दो

वे स्त्रियाँ
दीवारों के रंगहीन चेहरों पर
कुछ उखड़ी
कुछ बिखरी
गहरी शांत चकित
अगोचर आकृतियाँ बना रही हैं

वे निरंतर
रंगों की साँसों में
धड़कती हैं

वे कुछ क्षण
कितने संसारों में
कितने संसार रचती
डूब जाती हैं
अपनी आँखों के रंगमय संवाद में
उदित होते हैं
नवोदित स्वप्न
जो हवा वनस्पति और पृथ्वी में
स्पंदित होते चले जाते हैं

 

तीन

वे स्त्रियाँ
अपने ही घरों में
निर्वासित
जमीन से बेदख़ल होती
टूटते आकाश को
असहाय वृद्ध पेड़ की
बीहड़ चिंताओं में गिरते देख रही हैं
जिसमें उम्मीद के बादल
गुँथे थे।
जिसमें अनंत गहराइयों के रहस्य
छिपे थे

हरियाली की देह में
नील जम रही है

 

चार

वे स्त्रियाँ
यायावरी उपमाओं में बिंधी
अँधेरी खाइयों में
अपनी सुबह
डूबती देख रही हैं

उनकी आँखों में
पहाड़ से टकराते घने बादलों के झुंड
बिखर जाते हैं

वे स्त्रियाँ
अपने खपरैलों में फँसी
धुएँ के बेतरतीब चित्रों में
भूख के स्याह रंगों को
झरते देख रही हैं

 

पाँच

वे स्त्रियाँ
अपनी उदासीन देह में
असमाप्त थकान उतरते देख रही हैं
वे अपने हाथों में अटे
पहाड़ों में छिपे सूर्य को
अपनी हथेलियों की रेखाओं में
पिघलते देख रही हैं

वे भूल चुकी हैं
पैतृक आँखों में कभी
आँखें हुआ करती थीं
कभी अपनी परछाईं में
उम्मीद भरी खिड़कियाँ खुलती थीं
कभी पुरातन पृथ्वी होती थी

 

छह

वे स्त्रियाँ
रात और दिन के बीच
पुल की तरह
बिछी हैं

वे निहत्थी देख रही हैं
पुल के धूजते पाँवों में
नदी की करुणा लिपटी है

वे देख रही हैं
बहुत गहरे नदी में
हत्यारों की आँखें उतर आई हैं

जो समूची नदी में
तैर रही हैं!

स्रोत :
  • रचनाकार : वंशी माहेश्वरी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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