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अधिसीता

adhisita

शुभकांत बेहरा

अन्य

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और अधिकशुभकांत बेहरा

    मुझे कोई आपत्ति नहीं

    यदि तुम कर लो

    चौदह वर्ष वनवास जाकर

    अथवा अग्नि परीक्षा देकर

    स्वयं को पतिव्रता

    प्रमाणित।

    अपने चार बच्चों के

    निकम्मे बाप के आगे, मगर क्या सकोगी रोक

    पौरुष की लक्ष्मण-रेखा

    बार-बार लाँघ सके

    उसकी मर्दानगी की फूँक में

    सूखा पत्ता बन, मत उड़ जाना

    मुँह पर हँसी, छाती में कोह

    और विश्वास में इतिहास की बनी

    अबला की दुर्बलता लेकर

    अग्नि परीक्षा में जल जाओगी

    मगर धरती फटेगी नहीं, जब कि पुरुष की मर्दानगी में

    गुम जाओगी/ निशब्द, अँधेरों में, अपनी ही

    असहायता की आग में

    तुम बार-बार जली हो सीता बनकर

    फिर भी राख बनी

    कि ज़मीं में नहीं समाई

    माँग में सिन्दूर भरने से लेकर

    चिता पर चढ़ने तक

    तुम विश्वास के अशोक वन में

    स्वयं को बंदी कर

    अपने बच्चों और पति की

    करती हो मंगल-कामना, उन्हें त्याग कर

    कभी मुक्त नहीं किया स्वयं को

    अधबीच राह में

    ज्वाला, अपनत्व और लांछन पर भी,

    मूर्त-अमूर्त हर घड़ी/जकड़े रखा उन्हें:

    आज परम पुरुष राम की सीता

    और लव-कुश की प्रिय जननी

    अचानक निकल आई धरती से

    तुम्हें देख, जानकर यह स्वार्थीपन

    और इकतरफ़ा न्याय देख

    लज्जित हो जाती—

    तू सीता की दायाद बनकर भी

    अधिसीता बन गई॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 315)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : शुभकांत बेहरा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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