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आज मैं लड़ रहा हूँ

aaj main laD raha hoon

धूमिल

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धूमिल

आज मैं लड़ रहा हूँ

धूमिल

और अधिकधूमिल

    फूलों की हँसी के ख़िलाफ़

    ज़ंजीरें खनखना रही हैं

    और रिश्ते—

    मुहावरा बदलने की फ़िराक़ में हैं

    आज अँधेरा है और ख़ून

    लगा हुआ है हाथों में

    जिसे हमने हासिल किया है

    वह पालने में नहीं—रक्त लथपथ

    कराहों की बग़ल में पड़ा है।

    बच्चे भूखे हैं :

    माँ के चेहरे पत्थर,

    पिता जैसे काठ : अपनी ही आग में

    जले है ज्यों सारा घर।

    पेशेवर गुलाबों की हँसी ने

    ख़ारिज कर दिया है वसंत

    और कविता की नसों में

    बहता हुआ ख़ून

    ज़रूरत की जगह

    ज़हमत बन गया है

    अक्सर उठते हैं सवाल

    कहाँ है युवा-जन?

    परिवर्तन के आग्नि-चक्र?

    क्षुधित इतिहास?

    पीले पत्ते—

    पतझड़ की ओर उड़ते गए हैं?

    चुटकुलों-सी घूमती लड़कियों के स्तन

    नकली है? नकली हैं युवकों के दाँत?

    वे जबड़े जाम क्यों हैं

    जिन्होंने ख़ून की रपट पढ़ी है?

    मैं सुनता हूँ। उत्तर धीरे से

    मुझमें उभरता है, जैसे काल-कोठरी की

    दीवार पर उभरते हैं शब्द :

    कल सुनना मुझे—

    जब दूध के पौधे झर रहे हों सफ़ेद फूल

    निःशब्द पीते हुए बच्चे की ज़ुबान पर

    और रोटी खाई जा रही हो चौके में

    गोश्त के साथ। जब

    खटकर (कमाकर) खाने की ख़ुशी

    परिवार और भाईचारे में

    बदल रही हो—कल सुनना मुझे।

    आज मैं लड़ रहा हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कल सुनना मुझे (पृष्ठ 98)
    • रचनाकार : धूमिल
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1999

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