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दुर्मेधा जातक

durmedha jatak

अज्ञात

अज्ञात

दुर्मेधा जातक

अज्ञात

वाराणसी के राजा ब्रह्मद‌त्त के समय में बोधिसत्व ने राज-महिषी के गर्भ में जन्म लिया था। नामकरण के दिन उनका नाम ब्रह्मदत्तकुमार रखा गया था। उन्होंने सोलह वर्ष की अवस्था में ही तक्षशिला नगरी में विद्याभ्यास करके तीनों वेदों और अठारह कलाओं का बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उस समय ब्रह्मदत्त ने उन्हें उपराज के पद पर नियुक्त कर दिया था।

उन दिनों वाराणसी के निवासी पर्व आदि के दिन देवी-देवताओं की पूजा किया करते थे। उस पूजा में सैकड़ों हज़ारों बकरियों, भेड़ों, मुर्गों और सूअरों आदि का बध होता था और इन मारे हुए पशुओं के रक्त मांस तथा फल-फूल आदि के साथ देवताओं की अर्चना हुआ करती थी। ये सब बातें देखकर बोधिसत्व सोचने लगे कि लोग देवार्चन में बहुत से प्राणियों की हत्या करते हैं और इस प्रकार अधिकांश लोग अधर्म पथ पर चलते हैं। पिता की मृत्यु के उपरांत जब मुझे राजपद मिलेगा, तब मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे यह निष्ठुर प्रथा भी उठ जाए और लोगों को अपनी कोई हानि भी जान पड़े। मन में इस प्रकार का संकल्प करके राजकुमार एक रथ पर चढ़कर नगर से बाहर निकले। मार्ग में उन्होंने देखा कि एक बहुत बड़े वट वृक्ष के पास बहुत से लोग एकत्र हैं। लोगों का विश्वास था कि इस वट वृक्ष में किसी देवता का आविर्भाव हुआ है; इसीलिए वे वहाँ जाकर पुत्र, कन्या, यश, धन आदि अनेक बातों के लिए कामनाएँ किया करते थे। बोधिसत्व रथ पर से उतरकर उस वृक्ष के पास पहुँचे, गंध पुष्प आदि के द्वारा उन्होंने उसकी पूजा की, उसके मूल में थोड़ा जल डाला और प्रदक्षिणा तथा प्रणिपात करके वे रथ पर बैठकर नगर को लौट आए। तब से वे बराबर बीच-बीच में उस वृक्ष के पास जाया करते थे और सचे देवभक्त की भाँति इसी प्रकार उसकी पूजा किया करते थे।

समय पाकर उनके पिता की मृत्यु हो गई और वे सिंहासन पर बैठे। वे राजधर्म का पालन करते हुए शास्त्र के अनुसार राज्य का संचालन और प्रजा का पालन करने लगे। एक दिन उन्होंने सोचा कि मेरी एक अभिलाषा तो पूरी हो गई, मुझे राजपद मिल गया; अब मेरी दूसरी अभिलाषा भी पूरी होनी चाहिए। उन्होंने अपने अमात्यों तथा विद्वान् और साधारण गृहस्थ ब्राह्मणों आदि को एकत्र करके उनसे पूछा—क्या आप लोग जानते हैं कि मैंने किस प्रकार राजपद प्राप्त किया है? उन लोगों ने कहा—जी नहीं महाराज, हम लोग तो नहीं जानते। राजा ने कहा—क्या आप लोग जानते हैं कि मैं अमुक वट वृक्ष की केवल गंध और पुष्प के द्वारा पूजा किया करता था और केवल हाथ जोड़कर प्रणाम किया करता था? लोगों ने कहा—हाँ महाराज, यह तो हम लोग प्रायः देखा करते थे। राजा ने कहा—उस समय में प्रार्थना करता था कि जब कभी मैं राजपद पाऊँगा, तब वृक्ष-देवता की पूजा करूँगा। उन्हीं देवता की कृपा से अब मैं राजा हुआ हूँ। अतः अब मैं उनकी पूजा करना चाहता हूँ। आप लोग, जहाँ तक शीघ्र हो सके, पूजा का आयोजन करें। लोगों ने पूछा—महाराज, पूजा के लिए क्या आयोजन करना होगा? राजा ने कहा—मैंने उस समय निश्चय किया था कि मेरे राज्य में जो लोग जीवहिंसा आदि दुष्कर्म करते हैं, झूठ बोलते हैं, या इसी प्रकार के और पाप करते हैं, उन्हीं के मांस और रक्त आदि से में देवता की पूजा करूँगा। अब आप लोग भेरी बजवाकर यह घोषणा करा दीजिए कि ह‌मारे राजा जिस समय उपराज थे, उस समय उन्होंने देवता के सामने निश्चय किया था कि राजपद प्राप्त करने पर मैं राज्य के समम्त दुःशील मनुष्यों की बलि दूँगा। अब वे चाहते हैं कि प्राणि हिंसा आदि पाप करने वाले एक ह‌ज़ार दुःशील पुरुषों के मांस और रक्त आदि से पूजन करके देवता को तृप्त किया जाए। अतः नगर-निवासियों को सूचित किया जाता है कि आज से आगे जो लोग इस प्रकार के पापाचार में प्रवृत्त होंगे, उनमें से एक हज़ार मनुष्यों की बलि देकर राजा देवऋण से मुक्त होंगे। इसके उपरांत अपने उद्देश को और भी स्पष्ट करने के लिए बोधिसत्व ने नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

जिस समय में उपराज था, उस समय मैंने भक्ति भाव से देवता के सामने मन्नत मानी थी कि यदि मुझे राजपद मिलेगा, तो में एक हज़ार पाखंडियों की बलि चढ़ाऊँगा। अब मेरी वह कामना पूर्ण हो गई है और मैं सोचता हूँ कि एक हज़ार पाखंडी मुझे कहाँ मिलेंगे। पर मैं देखता हूँ कि अभी तक संसार में अगणित पाखंडी हैं। इससे आशा होती है कि मैं शीघ्र ही देवऋण से मुक्त हो जाऊँगा।

अमात्य आदि जो आज्ञा कहकर वहाँ से चले गए और उन्होंने सारी वाराणसी नगरी में इसी आशय की घोषणा भेरी बजवाकर कर दी। वह घोषणा सुनते ही सब लोगों ने दुःशील कर्मों का परित्याग कर दिया। जब तक बोधिसत्व राजा थे, तब तक उनकी प्रजा में से कोई दुःशीलता के अपराध का अपराधी नहीं देखा गया। इस प्रकार बोधिसत्व ने बिना किसी को कोई दंड दिए ही अपनी सारी प्रजा को शीलवान् बना दिया। वे स्वयं भी आजन्म दान-पुण्य आदि शुभ कर्म किया करते थे और देहांत के उपरांत देवनगर में गए थे।

स्रोत :
  • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 79)
  • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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