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चुल्लश्रेष्ठि जातक

chullashreshthi jatak

अज्ञात

अज्ञात

चुल्लश्रेष्ठि जातक

अज्ञात

प्राचीन काल में वाराणसी में ब्रह्मदत्त नामक एक राजा रहता था। उसके समय में बोधिसत्व ने श्रेष्ठि कुल में जन्म लिया था। जब बोधिसत्व बड़े हुए, तब वे भी श्रेष्ठि के पद पर नियुक्त हुए। लोग उनको चुल्लश्रेष्ठि (छोटा सेठ) कहा करते थे। वे बहुत ही विद्वान और बुद्धिमान् थे और शकुन आदि देखकर ही शुभाशुभ का विचार कर लिया करते थे। एक दिन वे राजा की सेवा में जा रहे थे। मार्ग में उनको एक मरा हुआ चूहा दिखलाई दिया। उन्होंने उसी समय आकाश के ग्रहों और नक्षत्रों आदि की स्थिति के विचार से गणना करके सोचा कि यदि उत्तम कुल का कोइ बुद्धिमान् व्यक्ति इस समय इस मरे हुए चूहे को उठा ले जाए, तो वह व्यवसाय करके अपने परिवार के भरण पोषण के लिए यथेष्ट धन उपार्जित कर सकता है।

उस अवसर पर उस मार्ग से एक भले घर का पर दरिद्र युवक जा रहा था। उसने उनकी यह बात सुनकर मन में सोचा कि ये बिना अच्छी तरह समझे बूझे कभी कोई बात नहीं कहते। अतः में इस मरे हुए चूहे को ले चलकर ही अपने भाग्य की परीक्षा करूँ। इसलिए वह उस मरे हुए चूहे को उठाकर ले चला। पास ही एक दूकानदार अपनी पाली हुई बिल्ली के खिलाने के लिए कुछ ढूँढ़ रहा था। उसने उस युवक को एक पैसा देकर वह चूहा उससे ले लिया।

युवक ने एक पैसे का गुड़ लिया और एक घड़ा पानी लेकर एक जगह बैठ गया। उस मार्ग से माली लोग वन से फूल चुनकर लाया करते थे। जब थके हुए माली वन से लौटे, तब उसने उन्हें थोड़ा-थोड़ा गुड़ देकर ठंडा जल पिलाया। माली भी प्रसन्न होकर उसे थोड़े-थोड़े फूल देते गए। युवक को वह फूल बेचने पर जो पैसे मिले, उन्हीं पैसों से उसने दूसरे दिन और गुड़ ले लिया और पहले दिन की भाँति मालियों को थोड़ा-थोड़ा गुड़ देकर जल पिलाना आरंभ किया। उस दिन मालियों ने उसे फूलों के कुछ ऐसे पौधे दिए जिनमें कुछ फूल लगे हुए थे। इस प्रकार उन फूलों और पौधों को बेचकर दो चार दिन में उसने आठ पैसे इकट्ठे कर लिए।

एक दिन बहुत पानी बरसा और हवा चली जिससे राजा के बाग़ में वृत्तों आदि की बहुत सी सूखी हुई डालियाँ और पत्तियाँ आदि गिरी। माली वह कूड़ा करकट साफ़ करने की चिंता में ही था कि इतने में वह युवक वहाँ जा पहुँचा और बोला—यदि तुम ये सब सूखी डालियाँ आदि मुझे दे दो, तो मैं इन सबको अभी यहाँ से उठा ले जाऊँ और तुम्हारा सारा बाग़ बात की बात में साफ़ कर दूँ। माली ने उसकी बात मान ली। वह युवक तुरंत एक ऐसे स्थान पर चला गया जहाँ मुहल्ले के लड़के खेल रहे थे। उसने उन लड़कों को थोड़ा-थोड़ा गुड़ दिया और कहा कि तुम लोग मेरे साथ राजा के बाग़ में चलकर कुछ भाड़ झंखाड़ साफ़ कर दो। लड़के गुड़ पाकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बाग़ का सब झाड़ भंखाड़ साफ़ करके बाहर एक जगह उसका ढेर लगा दिया। उस दिन राजा के कुम्हार के घर जलाने के लिए ईंधन नहीं था। वह अपना आँवाँ सुलगाने के लिए ईंधन लेने निकला था। उसने उस युवक को सोलह पैसे और कुछ हाँड़ियाँ आदि देकर उसमे डालियों और पत्तों का वह ढेर ले लिया।

अब उस युवक के पास चौबीस पैसे हो गए। उसने एक और उपाय सोचा। उन दिनों वाराणसी में पाँच सौ घसियार रहते थे जो जंगल में घास खोदने जाया करते थे। युवक नगर के बाहर एक स्थान पर पानी के कई घड़े भरकर बैठ गया और उन घसियारों को पानी पिलाने लगा। घसियारों ने प्रसन्न होकर उससे कहा कि यदि तुम्हारा कोई काम हो तो बतलाओ, हम लोग कर दें। युवक ने उत्तर दिया अच्छा जब समय आवेगा, तब में कहूँगा।

उस समय उस युवक की दो व्यापारियों के साथ बहुत मित्रता हो गई थी। उनमें से एक स्थल में ही रहकर व्यापार करता था और दूसरा जल मार्ग से व्यवसाय करता था। एक दिन स्थल के व्यापारी ने उससे कहा—कल एक व्यापारी पाँच सौ घोड़े लेकर यहाँ आवेगा। यह समाचार पाकर उसने घसियारों से कहा—कल तुम सब लोग मुझे एक-एक पूला घास देना; और जब तक मेरी सब घास बिक जाए, तब तक तुम लोग अपनी घास बेचना। घसियारों ने उसकी यह बात मान ली। दूसरे दिन जब वह घोड़ों का व्यापारी नगर में आया, तब उसे कहीं घास मिली। अंत में उसने युवक से एक हज़ार पैसे देकर सब घास ले ली।

इसके कुछ दिनों बाद उस युवक को जल मार्ग के व्यापारी से पता लगा कि बंदर में एक बड़ा जहाज़ माल लेकर आया है। उस समय उसने एक और उपाय सोचा। उसने तुरंत एक गाड़ी किराए पर ली और उस पर चढ़कर बहुत ठाठ से बंदर में जा पहुँचा। वहाँ उसने भाव ताव ठीक करके उस जहाज़ का सारा माल ले लिया, बयाने में अपने नाम की अँगूठी दे दी और पास ही एक तंबू खड़ा करके उसमें जा बैठा। उसने अपने आदमियों से कह दिया कि जब कोई व्यापारी मुझसे मिलने आवे, तो उसे तीन-तीन सेवक मेरे पास पहुँचाने आवें। जब नगर में यह समाचार पहुँचा कि बंदर में एक बड़ा जहाज़ माल लेकर आया है, तब वाराणसी के एक सौ व्यापारी वह माल लेने के लिए वहाँ पहुँचे। जब उन्होंने सुना कि एक सेठ ने सारे माल का बयाना कर लिया है, तब वे ढूँढ़ते हुए उस युवक के पास पहुँचे। वहाँ बहुत से नौकर चाकर और ख़ूब ठाठ बाउ देखकर उन लोगों ने अपने मन में सोचा कि यह कोई बहुत बड़ा महाजन है। एक-एक करके सब व्यापारी उस युवक से मिले। उन सब ने जहाज़ के माल में से एक-एक अंश पाने के लिए अपने अपने लाभ में से उस युवक को एक-एक हज़ार रुपया देना मंज़ूर किया। इसके उपरांत उस युवक का जो अंश बच रहा, दह भी उन सब ने नफ़े के एक-एक हज़ार रुपए देकर ले लिया। इस प्रकार वह युवक दो लाख रुपए लेकर वाराणसी लौट आया।

अब उस युवक ने सोचा कि बोधिसत्व के परामर्श के अनुसार काम करने से ही मेरा इतना भाग्य चमका है। अतः वह कृतज्ञता प्रकट करने के लिए एक लाख रुपए भेंट देने के निमित्त उनके पास पहुँचा। बोधिसत्व ने उससे पूछा—तुम्हें इतना धन कैसे मिला? इस पर उस युवक ने आदि से अंत तक अपनी सारी कथा कह सुनाई। सब बातें सुनकर बोधिसत्व ने सोचा कि इस बुद्धिमान् युवक को अपने ही पास रखना चाहिए। उन्होंने उसके साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। बोधिसत्व को और कोई संतान नहीं थी। इसलिए उनकी सारी संपत्ति का अधिकारी भी वही युवक हुआ। जब बोधिसत्व अपने कर्मों का फल भोगने के लिए शरीर त्यागकर दूसरे लोक में गए, तब वह युवक वाराणसी का महाश्रेष्ठी हो गया।

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