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बारहमासा (मार्गशीर्ष)

barahmasa (margashirsh)

कुतुबन

अन्य

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कुतुबन

बारहमासा (मार्गशीर्ष)

कुतुबन

और अधिककुतुबन

    अगहन कहं जग सीउ जनावा। हेवंत आइ पै कंत आवा।

    दुख बाढ़ा निसि संग कहं पाई। सुख रे खीनु हम दिन बरु जाई।

    जोबन छांह निमिख महं जाइहि। गएं बार फुनि बहुरि आइहि।

    बिरहें तन पंडुर जो होई। जोगिनि भेस करति मैं सोई।

    आहर जरम जात है नाहां। बेरसु आइ भर जोबन माहां।

    दुल्लंभ जिमि जल अंजुरी तिमि जोबन कर नेमु।

    खिन खिन खीन जाइ दिन खिन नहि मुक्कइ पेमु॥

    जगत में अगहन का शीत जनाई पड़ा। हेमंत गया किंतु प्रिय आया। रात्रि को संगिनी के रूप में पाकर मेरा दुःख भी बढ़ गया और मेरा सुख दिन के समान क्षीण होने लगा। यौवन की छाया क्षण मात्र में चली जाएगी और चली जाने पर पुनः लौट कर आएगी। विरह में मेरा तन जो पीला हो रहा है, समझो कि मैं योगिनी का वेष धारण कर रही हूँ। स्वामी! मेरा जीवन निष्फल जा रहा है। भरे यौवन में आकर उसका विलास कर ले! दुर्लभ, जिस प्रकार अंजलि में लिया हुआ जल निरंतर छीजता जाता है, उसी प्रकार यौवन का नियम है। यौवन के दिन क्षण-क्षण क्षीण होते जाते हैं, इसलिए प्रेम को क्षणभर के लिए भी छोड़ना चाहिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 277)
    • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
    • रचनाकार : कुतुबन
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1968

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