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बारहमासा (माघ)

barahmasa (magh)

कुतुबन

अन्य

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कुतुबन

बारहमासा (माघ)

कुतुबन

और अधिककुतुबन

    अब रे माघ आएउ दुख भारी। काह करौं नहि जाइ संभारी।

    झुरकइ पवन मरौं धुधुवाई। तपौं अकेलि जाड़ नहिं जाई।

    कंपहिं दसन सी घन लागै। सूर होइ पिउ तपइ भागै।

    तपहु आइ मोहि ऊपर नाहां। सात पतार जाइ दुख छाहां।

    सुरितु फिरी पिउ फेर दीन्हां। बिरह संताप सेज भरि दीन्हां।

    बिरह तुम्हारइं सुख हरा जिमि रावन हरी सीय।

    निसिअरपति हनु आइ कै जस रघुनंदन कीय॥

    अब माघ आया और भारी दु:ख आया। मैं क्या करती? वह संभाला नहीं जा रहा था। पवन झुर-झुर कर बहता और मैं धू-धू कर मरती; मैं वियुक्ता आग तापती भी तो ठंडक जाती। दाँत काँपते और घना शीत लगता। प्रिय, तू सूर्य होकर तपे तो वह भागे। स्वामी, तू आकर मेरे ऊपर तपे, जिससे दु:ख की छाया सातवें पाताल को चली जाए। सुंदर ऋतु आई और चली भी जा रही है, किंतु प्रिय! तूने फेरा किया। तूने शैया में विरह का संताप भर दिया है। तेरे विरह ने मेरा सुख हर लिया है, जिस प्रकार रावण ने सीता को हर लिया था। तू आकर उसी प्रकार निशाचर-राज विरह का संहार कर जिस प्रकार रघुनंदन राम ने किया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 279)
    • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
    • रचनाकार : कुतुबन
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1968

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