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बारहमासा (आषाढ़)

barahmasa (ashaDh)

मुल्ला दाउद

अन्य

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मुल्ला दाउद

बारहमासा (आषाढ़)

मुल्ला दाउद

और अधिकमुल्ला दाउद

    आय (इ) अषाढ मेघ ग(घ)ररांने। नर नरवै पुहमी अंगुराने॥

    छावहि मंदिर घर सारा। दीप गये बहरे बनिजारा॥

    सब को चिंत करै घर केरी। मोहि घर चिंत नाहि (ह) अवसेरी॥

    पिय बिरहै तनि मासु घटावा। गा अषाढ पै कंतु आवा॥

    जियरा मोर नांक होय (इ) रहा। पिय बिनु मरनु नितहि को सहा॥

    सुरिजन सावन बहुरेहि लागा कहि मैनां अब सभारे।

    हर भ(भं)डार कर टेका नैन लोहू भरि ठा(ढा)रै॥

    मैनां सुरिजन से कहती है कि आषाढ़ आया तो मेघ गर्जन करने लगे; पृथ्वी पर नर तथा नरपति अंकुरित होने लगे। वे अपने मंदिर, घर और शालाएँ छा रहे थे; जो बनजारे द्वीपों को गए थे, वे भी लौट आए थे। सभी अपने-अपने घर की चिंता कर रहे थे, और मुझे अपने घर की चिंता इसलिए करनी पड़ रही है कि मेरा स्वामी घर पर नहीं है। प्रिय के विरह में मैंने शरीर का माँस गला दिया। आषाढ़ भी चला गया किंतु कन्त आया! मेरा जी नाकों गया है, क्योंकि प्रिय के बिना मरण नित्य ही कौन सहन करता? सुरिजन, सावन पुनः लग गया है, कहना कि मैनां अब अपने को नहीं संभाल पा रही है, वह घर और भंडार पर हाथों को टेक कर नेत्रों में लहू के आँसू भर-भर कर ढाल रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 350)
    • रचनाकार : मुल्ला दाउद
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1967

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