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सौंदर्य वर्णन (आठ)

saundarya warnan (ath)

कुतुबन

अन्य

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कुतुबन

सौंदर्य वर्णन (आठ)

कुतुबन

और अधिककुतुबन

    सांख घोटि के पीठि संवारीं। कै रे मैन सांचे महं ढारी।

    सांचहि जैसी ढारि जाई। बिधि अपने रूचत अनिपाई।

    पीठी दिपइ जानु झरकइ देहा। देखिउं पीठइ जहां लहि रेहा।

    बांस पोर काठ तिरि रेखा। कै बोलन गुन सरिग बिसेखा।

    बिखम भुअंगम बेनी भई। मारग ओही सीस सो गई।

    चतुरि सुजानि बिचाखनी सोई पीठि रची सयंसार।

    नखसिख बेनी नित्त तरासइ सिरजन हार मुरारि॥

    उसकी पीठ या तो शंख से घोट कर संवारी हुई है, अथवा सांचे में ढली हुई मोम है। सांचे में तो ढाली नहीं जा सकती है, इसलिए विधाता ने उसे अपनी रुचि के अनुरूप निष्पन्न किया है। वह पीठ ऐसी दीप्त रहती है मानो उसकी देह ही झलकती हो और उसकी पीठ को मैंने इतनी पूर्णता के साथ देख लिया जहाँ तक उसमें रेखाएँ हैं। उसके कंठ की तीन रेखाएँ या तो बांस की पोरें हैं या उसके बोलने के लिए तीन विशिष्ट स्वर सा, रे और हैं। उसकी वेणी विषम भुजंग हुई और उसी मार्ग से वह उसके सिर तक गई है। वह चतुर, सुजान और विचक्षण है। उसी प्रकार उसकी पीठ भी संसार में विलक्षण रची हुई है। उसके नखशिख को उसकी वेणी नित्य त्रस्त करती रहती है, किंतु उस के सृजन करने वाले मुरारी हैं जिन्होंने कालीय का दमन किया था, इसलिए वह उसका कोई अनिष्ट नहीं कर पाती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 50)
    • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
    • रचनाकार : कुतुबन
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1968

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