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राम द्वारा जिनेश्वर की स्तुति

ram dwara jineshwar ki istuti

स्वयंभू

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राम द्वारा जिनेश्वर की स्तुति

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    थुओ संति-णाहो। कयक्खावराहो॥

    हयाणंग-संगे। पभा-भूसियंगे॥

    दया-मूल-धम्मो। पणट्ठट्ठ-कम्मो॥

    तिलोयग्ग-गामी। सुणासीर-सामी॥

    महा-देव-देवो। पहाणूढ-सेवो॥

    जरा-रोग-णासो। असामण्ण-भासो॥

    समुप्पण-णाणो। कयंगि-प्पमाणो॥

    ति-सेयायवत्तो। महा-रिद्धि-पत्तो॥

    अणंतो महंतो। अ-कंतो अ-चिंतो॥

    अ-डाहो अवाहो। अ-लोहो अ-मोहो॥

    अ-कोहो अरोहो। अ-जोहो अ-मोहो॥

    अ-दुक्खो अ-भुक्खो। अ-माणो समाणो॥

    अ-जाणो सजाणो। अ-णाहो वि णाहो॥

    श्रीराम ने इंद्रियों का दमन करने वाले शांतिनाथ भगवान की स्तुति प्रारंभ की-“हे स्वामी! आपने काम को समाप्त कर दिया है। आपके अंग कांति से मंडित हैं, आप दया को मूलधर्म मानते हैं, आपने आठ कर्मों का नाश किया है और आप तीनों लोकों में गमन करते हैं, आप इंद्र के भी स्वामी हैं, आप महादेव हैं, बड़े-बड़े लोग आपकी सेवा करते हैं, आप जरारोग का नाश करने वाले हैं; आपकी कांति असाधारण है, आपको केवल ज्ञान उत्पन्न हो चुका है, आपने अप्रमाणता अंगीकार कर ली है, तीन श्वेत आतपत्र आपके ऊपर हैं, आपको महान ऋद्धियाँ उपलब्ध हैं, आप अन्नत हैं, महान हैं, आप कांताविहीन हैं, चिंताओं से दूर हैं, ईर्ष्या और बाधाओं से परे हैं, लोभ और मोह आपके पास नहीं फटकते, आप में क्रोध है और क्षोभ। मान है और सम्मान, आप अज्ञानी हैं और सज्ञानी, अनाथ हैं और सनाथ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पउम चरिउ (पृष्ठ 92)
    • संपादक : हीरालाल जैन
    • रचनाकार : स्वयंभू
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1970

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