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बारहमासा (चैत्र)

barahmasa (chaitr)

कुतुबन

अन्य

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कुतुबन

बारहमासा (चैत्र)

कुतुबन

और अधिककुतुबन

    चैत चहं दिसि करह संभारा। बिरहा हम तन खोइ खोइ जारा।

    मौली बनसपती जग फूला। पिउ मकरंद अवर कहुं भूला।

    कानन फिरि पिक पंचम बोला। जोबन कली बिगसि मुंह खोला।

    दरिसत परिमल पीय बिसारी। सुदल सुरूप फूली फुलवारी।

    यहउ जरम निरतत ही जाई। आरन जेउं मालति कुंबिलाई।

    भंवर बिसारि मालती औगुन आहि कीत।

    पिय बेली के बोल रे सवन सुनइ धरि चीत॥

    चैत्र ने चारों दिशाओं में नव पल्लव की सृष्टि की तो विरह ने मेरे शरीर को खो-खो कर जलाया। वनस्पति मुकुलित हुई और संसार फूल उठा, किंतु मेरा प्रिय किसी और मकरंद के लिए भटक रहा था। कानन में पिक पुनः पंचम स्वर में बोल उठा, जिससे यौवन कलिका ने विकसित होकर मुख खोल दिया। किंतु जब मेरे जीवन में परिमल दिखाई पड़ा, तब प्रिय ने मुझे विस्मृत कर दिया, जब कि मेरी फुलवाड़ी सुंदर दलों से युक्त और सुरूप होकर फूली। मेरा यह जन्म भी निस्तत्व ही जा रहा, जिस प्रकार अरण्य में खिलकर मालती कुम्हलाती है। भ्रमर! तू मालती को विस्मृत कर क्योंकि इसने कोई अपराध नहीं किया है। प्रिय, इस वल्लरी के वचन सुन और उन्हें चित्त में धारण कर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 281)
    • संपादक : माताप्रसाद गुप्त
    • रचनाकार : कुतुबन
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1968

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