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थक गया है दोपहर

thak gaya hai dopahar

राघवेंद्र शुक्ल

राघवेंद्र शुक्ल

थक गया है दोपहर

राघवेंद्र शुक्ल

रेत सा मन मिल गया है,

अभी तपता, अभी शीतल

अभी उड़कर बिखर जाए

अभी भर ले हृदय में जल।

पत्थरों-सा अहंकारी

दिवा-निशि संतप्त तपकर।

लेख जो कुछ भी,अमिट,

है बैर गति से, शून्य शंकर।

तिमिर-सा निज नेत्रहीन,

अनुर्वर, चिर सुप्तप्राय।

शोर : श्रम से श्रांत सोया,

कल्पनाएँ कृष्णकाय।

निर्झरी वाचालता है

अधोगामी नित पतन है।

दूब-सी उगती अभीप्सा

क्यारियों में नागफन है।

एक ठहरे नाव-सा

गतिशील सरिता के सहारे।

देखता कातर, किनारा

एक यात्रा-चित्र धारे।

मेघ-सी यायावरी है,

मेघ-सी ही है विवशता।

कंठ तक भरकर छलके

मन की ऐसी है कलशता।

क्षण में ही नव बाग़ फूले

क्षण में ही पतझर पधारे,

क्षण में सावन झूमता हो

क्षण में तपता जेठ जारे।

भोर देखी, प्रात छूटा,

नींद टूटी, स्वप्न टूटा।

बह गया कितना मरुस्थल,

बह गईं कितनी हवाएँ,

बह चुकी है राप्ती में

नीर की कितनी सदाएँ।

अड़ गया क्या!

टल गई भू इस दिशा से उस दिशा तक

सूर्य का रथ टस मस,

पर!

थक गया है, दोपहर।

स्रोत :
  • रचनाकार : राघवेंद्र शुक्ल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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