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कुछ भी तो अब

kuch bhi to ab

नईम

अन्य

अन्य

नईम

कुछ भी तो अब

नईम

और अधिकनईम

    कुछ भी तो अब

    तंत नहीं है—

    ऊपरवाले की लाठी में।

    दीमक चाट गई है शायद—

    ये भी ऊपरवाला जाने,

    भुस में तिनगी जिसने डाली—

    वही जमालो खाला जाने।

    हम तो खड़े हुए हैं

    घर के

    पानीपत हल्दीघाटी में।

    दो ही दिन में बासी

    लगने लगते हैं परिवर्तन

    प्रगतिशील होकर आते

    घर-घर में अब ऋण।

    अपने को

    रूँधा कुम्हार-सा,

    कस ही नहीं रहा माटी में।

    श्राद्धपक्ष ही नहीं, किंतु अब

    उनकी बारहमास छन रही,

    पात्र-कुपात्र देखे भंते!

    कच्ची, क्वाँरी कोख जन रही।

    तेल नहीं रह गया

    हमारी

    परंपरा औ’ परिपाटी में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लिख सकूँ तो— (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : नईम
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2003

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