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तारागणक गोपाल भांड़

taragnak gopal bhaanD

एक बार महाराजा कृष्णचंद्र को नवाब का फ़रमान मिला कि वह इस छोर से उस छोर तक और ऊपर से नीचे तक धरती का सही-सही नाप मालूम करे। साथ ही अगर वह आकाश के तारों की संख्या भी पता कर सके तो नवाब को बहुत ख़ुशी होगी। फ़रमान सुनकर महाराजा भौंचक्का रह गया। उसने जवाब भिजवाया कि वह बेअदबी नहीं करना चाहता, पर हुज़ूर ने उसे नामुमकिन को मुमकिन करने का हुक्म फ़रमाया है।

नवाब ने कहलवाया, “करोगे तो मुमकिन हो जाएगा।”

महाराजा कृष्णचंद्र गहन अध्ययन में डूब गया। उसकी चिंता दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। उसे समझ नहीं पड़ रहा था कि कैसे वह नवाब की फ़रमाइश पूरी करे।

कुछ दिन उपरांत गोपाल भांड़ का उधर आना हुआ। महाराजा को परेशान देखकर उसने निवेदन किया, “स्वामी, यह मैं क्या देख रहा हूँ! इस सेवक के रहते आपको चिंता करने की क्या ज़रूरत है! दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं जिसे आपके आशीर्वाद से आपका यह दास कर सके।” कहते समय उसकी आँखों से आत्मविश्वास छलक रहा था।

पर महाराज की चिंता कम हुई। कहने लगा, नहीं गोपाल, यह काम तुम्हारे बस का भी नहीं। नवाब हुज़ूर ने मुझे पृथ्वी की लंबाई और चौड़ाई पता करने का हुक्म फ़रमाया है। और जैसे इतना ही काफ़ी हो, तारों की गिनती करने को भी कहा है।”

गोपाल का उत्साह रत्ती भर कम हुआ। बोला, “यह तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है। आप मुझे अपना पृथ्वीमापक और तारागण नियुक्त कर दीजिए और बाक़ी चिंता मुझ पर छोड़ दीजिए। जब काम पूरा हो जाएगा तो मैं परिमाण लेकर नवाब हुज़ूर के दरबार में हाज़िर हो जाऊँगा। आप तो बस नवाब साहब को यह कहलवा दें कि मुझे एक साल की मुहलत इनायत करें। और हाँ, काम पूरा करने के लिए दस लाख रुपए भी। एक साल के बाद उन्हें पृथ्वी की माप और तारों की संख्या सही-सही बता दूँगा।”

महाराजा ने राहत की साँस ली। अगर नाकामी हाथ लगी तो गोपाल का सर कलम होगा, उसका नहीं। गोपाल के कहे अनुसार उसने नवाब को संदेशा भिजवा दिया।

साल भर गोपाल बड़े ठाट से रहा। उन दस लाख रुपए को उसने सुंदरतम औरतों, बेहतरीन खानों और आला दर्ज़े की शराब पर खुले हाथों लुटाया। महलों, हाथियों, नागिनों सहित किसी भी चीज़ की उसके पास कोई कमी नहीं थी। उसका वैभव किसी राजा से कम था। बरस की हर घड़ी उसके लिए ख़ुशियों से भरपूर थी।

साल के अंत में वह महाराजा के पास गया और दस लाक रुपयों में से बचे हुए चार निकेल के और दो ताबें के सिक्के खनखनाते हुए चिंतित स्वर में बोला, “अन्नदाता, जितना मैंने सोचा था यह काम उससे अधिक मुश्किल निकला। शुरुआत बहुत अच्छी हुई है। अभी तक के परिणाम संतोषजनक हैं। लेकिन मुझे एक बरस की मुहलत और चाहिए। और ख़र्च के लिए दस लाख रुपए भी।”

चाहते हुए भी महाराजा को मामला नवाब के हुज़ूर में पेश करना पड़ा। नवाब ने आधे-अधूरे मन ले मंज़ूरी दे दी। गोपाल ने दूसरा बरस और भी ठाट-बाट से बिताया। अब इन मामलों में उसे कुछ तजुर्बा जो हो गया था।

उसके ठीक एक बरस बाद गोपाल नवाब के महल की ओर पाँव घसीटते हुए बढ़ रहा था। उसके पीछे पंद्रह बैलगाड़ियाँ थीं। बैलगाड़ियाँ कटे-फटे, कुचले और उलझे रेशमी धागों से उपर तक लदी हुई थीं। और सबसे आख़िर में थीं पाँच मोटी-ताज़ी भेड़ें। इस अनोखे क़ाफ़िले के साथ महल के बुलंद दरवाज़ों को पार करते हुए वह नवाब के दरबार में पहुँचा। नवाब को फ़र्शी सलाम करने के उपरांत वह कहने लगा, “सरकार, आपके हुक्म के मुताबिक़ मैं धरती को इस सिरे से उस सिरे तक और ऊपर से नीचे तक नाप आया हूँ, और आकाश के तारे भी गिन लिए हैं।”

“शाबाश! बताओ मुझे सही-सही आंकड़े बताओ!”

“आंकड़े? आंकड़ों की बात तो नहीं अन्नदाता! मैंने तो वही किया जिसका आपने हुक्म फ़रमाया था। पृथ्वी की चौड़ाई अगली सात गाड़ियों में भरे धागों के बराबर है और पृथ्वी की लंबाई बाक़ी आठ गाड़ियों के धागों की लंबाई के बराबर। और हुज़ूर, इन पाँच भेड़ों के शरीर पर जितने बाल हैं ठीक उतने ही आकाश में तारे हैं। बिलकुल उतने ही बालों वाली भेड़ें कितनी मुश्किल से मिलीं यह मैं जानता हूँ या ऊपर वाला जानता है!”

नवाब ने कहा, “नामुमकिन! मैं इन धागों की लंबाई मालूम नहीं कर सकता और ही इन भेड़ों के बाल गिने जा सकते हैं। फिर भी तुमने अपना कौल पूरा किया। यह रहा तुम्हारा इनाम—दस लाख रुपए।”

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 4)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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