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भाई दूज

bhai dooj

एक भाई था जिसकी बहन का ससुराल बहुत दूर था। एक बार भाई ने माँ से कहा, “माँ, भाई दूज पर मैं दीदी से मिलने जाऊँगा और उसे नए कपड़ों में देखूँगा। बहुत-से लोग अपनी बहनों से मिलने जा रहे हैं। मैं भी जाऊँगा।”

माँ ने कहा, “मेरे बच्चे अभी तू छोटा है और तेरी दीदी का ससुराल बहुत दूर है। रास्ते में ख़ूँख़ार जानवर हैं। शेर हैं। वे तुझे खा जाएँगे। तू कैसे जाएगा?”

उसने जवाब दिया, “नहीं माँ, मैं जाऊँगा।”

माँ ने बेटी के लिए लहँगा-ओढ़नी और जँवाई के लिए पगड़ी-कुरता एक गठरी में बाँधे और उसे बेटे को देते हुए कहा, “जा, भाई दूज पर दीदी को नए कपड़ों में देख देख, कैसी होशियारी से जाता है!”

लड़का घर से निकल पड़ा। रास्ते में उसे एक विशाल पेड़ मिला। पेड़ ने कहा, तुम पर गिरूँगा।”

लड़के ने कहा, “मुझ पर मत गिरो। मैं भाई दूज पर दीदी को नए कपड़ों में देखने जा रहा हूँ। गिरना ही चाहते हो तो वापस आऊँ तब गिरना।”

वहाँ से चला तो रास्ते में उसे एक नदी मिली। नदी ने कहा, “मैं तुम्हें डुबोऊँगी।”

लड़का बोला, “नदी बहना, मुझे मत डुबाओ। मैं भाई दूज पर दीदी को नए कपड़ों में देखने जा रहा हूँ। डुबाना ही चाहती हो तो दीदी से मिलकर आऊँ तब डुबा देना।”

उससे आगे उसे एक साँप मिला। बोला, “मैं तुझे डसूँगा।” लड़के ने कहा, “मुझे मत डसो। मैं भाई दूज पर दीदी को नए कपड़ों में देखने जा रहा हूँ। दीदी से मिलाकर मैं लौट आऊँगा। चाहो तो तब मुझे डस लेना।”

वहाँ से आगे चला तो उसे एक शेर मिला। बोला, “भैया, मैं तुझे खाऊँगा।”

लड़के ने शेर से कहा, “मुझे मत खाओ। मैं भाई दूज पर दीदी को नए कपड़ों में देखने जा रहा हूँ। खाना चाहो तो वापस आऊँ तब खा लेना।”

अंततः वह दीदी के सुसराल पहुँचा। वह वहाँ पहुँचा तब उसकी दीदी चरखा चला रही थी। उनकी आँखें मिलीं, पर वह भाई से मिलने के लिए खड़ी नहीं हुई। क्योंकि ऐन उसी वक़्त उसका सूत टूट गया था। सूत टूट जाने पर मेहमान की अगवानी करने से मेहमान का अमंगल जो होता है।

पर लड़के को यह पता नहीं था। उसने सोचा, “मैं इतनी दूर से मिलने आया, पर मेरी दीदी ने मुझसे बात तक नहीं की।” वह मुड़ा और वापस चल पड़ा। उसकी दीदी ने फटाफट सूत को जोड़ा और बोली, “ओ भैया, तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे भले के लिए ही मैं नहीं उठी। टूटे सूत के साथ मैं तुम्हारी अगवानी कैसे कर सकती थी!”

भाई-बहन गले मिले। एक-दूसरे की कुशलक्षेम पूछी।

फिर बहन भागी-भागी पड़ोसन के यहाँ गई। पूछा, “ताईजी, मेरा भाई आया है। भाई दूज पर पहनने के लिए मेरे नए कपड़े लाया है। मुझे क्या करना चाहिए?”

पड़ोसन बदमाश थी। कहने लगी, “अरी फूहड़, इतना भी नहीं जानती? आँगन को तेल से लीप और चूल्हे पर घी उबलने के लिए रख दे।” बहन उलटे पाँव वापस आई। बड़े बर्तन में घी उबलने के लिए चूल्हे पर रखा और आँगन में तेल छिड़का। पर तो घी उबला और ही तेल सूखा।

वह भागी-भागी दूसरी पड़ोसन के पास गई। कहा, “चाचीजी, मेरा भाई मेरे लिए भाई दूज के कपड़े ले कर आया है। मैंने ताईजी से पूछा तो बोलीं कि आँगन को तेल से लीपूँ और घी उबालूँ। मगर तेल सूखता नहीं और घी उबलता नहीं!”

यह पड़ोसन भली थी। कहने लगी, “मैं तुम्हें बताती हूँ। गाय के गोबर और पीली माटी से आँगन लीपो और पानी में चावल पकाओ। चावल पक जाएँ तो उनमें ख़ूब सारा घी और चीनी डालकर भाई को खिलाओ।”

वह वापस घर आई। आँगन को पीली माटी और गोबर से लीपा, पानी में चावल पकाए और उनमें घी-चीनी मिलाकर भाई को परोसे।

एक दिन बीता, दो दिन बीते, चार दिन बीते तो भाई ने कहा, “दीदी, अब मैं जाऊँगा।” बहन सोचने लगी, “मैं भैया के साथ शकरपारे भेजूँगी। माँ और बापू को शकरपारे बहुत अच्छे लगते हैं। रास्ते में भूख लगेगी तो भैया भी खा लेगा।

मैं उसके साथ चपातियाँ नहीं, ख़स्ता शकरपारे भेजूँगी।”

उस दिन वह रात को उठ बैठी और गेहूँ पीसने लगी। पीसना शुरू किया ही था कि एक काला साँप सीधे गाले में गिरा। चक्की में गेहूँ के साथ साँप भी पिस गया। पर अँधेरी रात के कारण बहन को कुछ पता नहीं चला। उस आटे के उसने शकरपारे बनाए। अल्ल सवेरे उसने भाई को विदा किया। उसने शकरपारे की पोटली देते हुए कहा, “होशियारी से जाना!”

दो-चार शकरपारे उसने अपने बच्चों को देने के लिए रख लिए थे। भाई के जाने के बाद बच्चे उसे दिक करने लगे, “ए माँ, तुमने मामा को पोटली में क्या दिया था? लाओ, हमें भी दो!”

वह बोली, “मैंने सारे शकरपारे तुम्हारे मामा के साथ भेज दिए।” पर बच्चों ने उसकी बात पर भरोसा नहीं किया। वे उसके पीछे पड़ गए। सो उसने चार शकरपारे लिए और उनके चार टुकड़े किए। वह उन्हें आधा-आधा शकरपारा देने जा रही थी कि उसे उनमें साँप की हड्डियाँ दिखीं। वे शकरपारों के टुकड़ों में से बाहर झाँक रही थीं। उसके मुँह से चीख़ निकल गई, “ग़ज़ब हो गया!” वह भागी-भागी उस भली पड़ोसन के पास गई और हाथ जोड़ कर बोली, “चाची, मेहरबानी करके मेरे बच्चों और घर का ज़रा ध्यान रखना। हो सकता है भैया ने शकरपारे खा लिए हों और वह आख़िरी घड़ियाँ गिन रहा हो।”

फिर वह भाई के पीछे जंगल की तरफ़ भागी। बारह कोस इधर और बारह कोस उधर वह जंगल में भागती रही। वह भागती जाती थी और चिल्लाती जाती थी, “रुक जाओ, भैया रुक जाओ!”

आख़िर वह भाई से थोड़ी ही दूर रह गई। भाई ने बहन की पास आती आवाज़ को पहचान लिया। सोचने लगा, “दीदी क्यों मेरे पीछे भागी आई है! मैं तो उसके यहाँ से कुछ नहीं लाया! वह मुझे क्यों बुला रही है?” उसे देखते ही बहन ने पूछा, “भैया, तुमने शकरपारे खाए तो नहीं?”

भाई ने कहा, “तुम ख़ुद देख लो! जैसे तुमने कपड़े में बाँधे थे वैसे ही थैले में रखे हैं।” वह चिल्लाई, “ओ मेरे भैया! एक काला साँप गेहूँ के साथ पिस गया था। जब मैंने एक शकरपारा तोड़ा तो उसकी हड्डियाँ उसमें से झाँक रही थी।” भाई ने शकरपारे की पोटली फेंक दी और दीदी के साथ वापस घर लौट गया।

बहन ने हफ़्ते भर भाई को अपने पास रोके रखा! तब भाई को कहना पड़ा, “दीदी, तुम कब तक मेरी रक्षा करोगी? तुम्हारे यहाँ आने के लिए गाँव से निकलते ही मुझे एक विशाल पेड़ मिला। कहने लगा, ‘मैं तुम पर गिरूँगा।’ उसके बाद नदी मिली। बोली, ‘मैं तुम्हें डुबोऊँगी।’ उसके बाद मुझे एक साँप मिला। उसने कहा, ‘मैं तुम्हें डसूँगा।’ फिर एक शेर मिला। बोला, ‘मैं तुम्हें खाऊँगा।’ तुम कैसे मेरी रक्षा करोगी?”

बहन ने नदी को देने के लिए अपना हार लिया, साँप के लिए एक कटोरी दूध लिया और शेर के लिए एक छोटा बकरा। जंगी पेड़ को प्रसन्न करने के लिए उसने पाँच शालग्राम की बटियाँ लीं। फिर वह पड़ोसन के पास गई और बोली, “चाची, ज़रा मेरे बच्चों और घर का ध्यान रखना। मैं भैया को गाँव पहुँचाने जा रही हूँ। जल्दी ही लौट आऊँगी।”

भाई और बहन ने विकट जंगल में प्रवेश किया। साथ लाई वस्तुएँ भेंट करके बहन ने शेर, साँप, नदी और विशाल वृक्ष से भाई की रक्षा की।

चलते-चलते उन्हें प्यास लगी। भाई ने कहा, “मैं पेड़ पर चढ़कर देखता हूँ। जहाँ बगुले मंडरा रहे होंगे वहाँ पानी ज़रूर होगा।” वह पेड़ पर चढ़ा। कुछ दूरी पर उसे बगुले मँडराते दिखे। बोला, “दीदी, तुम यहाँ छाया में बैठो। मैं पानी लेकर आता हूँ।”

उसके जाने के बाद बहन ने विधात्री को जंगल में घूमते देखा। विधात्री होंठों ही होंठों में बड़बड़ाती जाती थी, “इकलौते बेटे को बचाना है...इकलौते बेटे को बचाना है...” बहन ने चिल्लाकर पूछा, “अम्मा, तुम क्या कह रही हो?”

विधात्री ने कहा, “इकलौते बेटे को बचाना है।” बहन ने इसका मतलब यह निकाला कि उसके भाई के सर पर मौत मंडरा रही है।

“मैं क्या करूँ अम्मा?” उसने विनती की।

विधात्री ने जवाब दिया, “होली और दिवाली के बाद भाई दूज पर कथा सुनना और भाई की पूजा करना। पूजा करना, पर भाई दूज पर उसे शाप देना। ये शाप ही तुम्हारे भाई की रक्षा करेंगे।”

वह उसी समय भाई को शाप देने लगी, “मेरे भाई की हड्डियाँ टूट जाएँ। वह मर जाए!” भाई पानी लेकर आया तब भी वह चुप नहीं हुई। सुनकर भाई को धक्का लगा। वह सोच में पड़ गया, “अब क्या होगा?”

वे घर पहुँचे तो वहाँ ज़ोर-शोर से भाई के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं।

बहन ने कहा, “तुम इसकी शादी कर रहे हो, मेरी भी करो!” सबको अचरज हुआ!

भाई ने कहा, “दीदी बहुत अच्छी और चतुर थी। आज जाने इसे क्या हो गया है!”

शादी से पहले की रस्में चल रही थीं। दूल्हा ख़ास पीढ़े पर बैठा था। बहन ने कहा, “वह अकेला कैसे बैठा है? मैं भी बैठूँगी।” सबको यह ख़ब्त बड़ी अजीब लगी। पर भाई ने कहा, “इसे कुछ मत कहो। इसे भी पीढ़े पर बैठने दो!”

दूल्हे को हल्दी-तेल की उबटन लगाई जाने लगी तो बहन चिल्लाई, “मेरे भी उबटन लगाओ! मेरे भी उबटन लगाओ!” भाई ने कहा, “यह पागल हो गई है। लगाओ, इसके भी लगाओ!”

रिश्तेदारों और दोस्तों के यहाँ से वरभोज का न्यौता मिलने पर वह कहती, “मैं भी चलूँगी।” इस तरह जो भाई ने किया वह उसने भी किया।

शादी के दिन दूल्हा घोड़े पर बैठकर रवाना हुआ तो वह भी उस घोड़े पर बैठने की ज़िद करने लगी। भाई ने कहा, “इसे भी मेरे साथ बैठने दो!”

वधू के द्वार पर लटके तोरण से वर के तलवार टकराने की वेला पर बहन ने कहा, “मैं भी करूँगी।” और जब दूल्हा दुलहन के संग देवताओं की पूजा करने बैठा तब भी वह भाई के साथ बैठी। भाई ने कहा, “यह पगला गई है। जो मैं करूँगा यह भी करेगी।”

वर-वधू के पवित्र अग्नि के फेरे लिए तब भी वह पीछे नहीं रही। दुलहन को लेकर बरात वापस आई तो वह भी साथ आई।

रात को दूल्हा-दुलहन सोने के लिए कमरे में जाने लगे तो बहन ने कहा, “मैं भी इनके पास सोऊँगी।” भाई ने कहा, “कोई बात नहीं। इसे सोने दो।” सो बीच में पर्दा लगाकर उसी कमरे में उसका बिस्तर भी लगा दिया गया।

आधी रात को दुल्हा-दुलहन नींद में डूब गए तो एक साँप आया और नींद में सोए जोड़े की ओर रेंगते हुए बढ़ने लगा। बहन को नींद कैसे सकती थी! वह भाई के दुश्मन की बाट जो जो रही थी! साँप को देखते ही वह झपटी, उसके तीन टुकड़े किए और टुकड़ों को एक ढाल के नीचे छुपा दिया। फिर वह आराम से सो गई।

सुबह सब जग गए, पर वह सोती रही। भाई ने कहा, “दीदी सो रही है। मैं मेहमानों को विदा कर दूँ। उठ गई तो पता नहीं वह पागल क्या कर बैठे!” पर माँ ने बरज दिया, “नहीं बेटे, वह पागल नहीं है। यह ऐसे तो कभी नहीं सोती। बचपन से ही इसकी नींद कच्ची है। मेहमानों को विदा करने से पहले इसे जगा दो, नहीं तो तुम्हें उन्हें वापस बुलाना पड़ेगा।”

उन्होंने उसे जगाया। जगते ही वह कहने लगी, “सब गाँव वालों को इकट्ठा करो। मैं सबको बताऊँगी कि क्यों मैंने बच्चों को पड़ोसन के भरोसे छोड़ा, कैसे मैंने भैया का पीछा किया, घर-परिवार से दूर रही—सब भैया के शत्रु उस साँप के लिए जो इसकी सुहागरात को यहाँ आया।”

ढाल हटाकर उसने सबको साँप के तीन टुकड़े दिखाए।

फिर उसने कहा, “भैया, जब हम जंगल में थे तो मुझे विधात्री माँ मिली और कहा, ‘इकलौते बेटे को बचाना है।’ और मुझे होली और भाई दूज पर भैया की पूजा करने को कहा। भाई अपनी बहनों को लहँगा-ओढ़नी दें और बहनें भाइयों को शाप दें। मेरे भैया की हड्डियाँ टूट जाएँ! मेरा भाई मर जाए!”

वह हज़ारों साल जीए!

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 14)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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