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राजा विक्रम और चीन की राजकुमारी

raja vikram aur cheen ki rajakumari

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उज्जैन का राजा विक्रमादित्य शक्तिशाली और न्यायप्रिय शासक था। उसके राज्य में अन्याय हो इसलिए वह अकसर भेष बदलकर प्रजा के बीच अकेला घूमता था। इससे उसे अनेक विचित्र और चौंकाने वाली बातों और रहस्यों का पता चला।

एक बार एक योगी उसके राज्य में आया और उज्जैन नगरी के किनारे बहने वाली नदी की परली तरफ़ पर्णकुटी बनाकर रहने लगा। कुटिया के केंद्र में उसने धूनी जगाई। वह दिन भर धूनी की प्रज्जवलित आग के बीच में बैठा रहता था। देखते-देखते उज्जैन नगरी के घर-घर में योगी की चमत्कारिक सिद्धियों की ख्याति फैल गई। उसके दर्शनों के लिए ठट के ठट लोग आने लगे। उसके शिष्यों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती चली गई। उसके नए पंथ में दीक्षित होने की लोगों में होड़ लग गई। उसकी छूत से राजमहल भी बच सका। राजा विक्रम को संदेह हुआ कि इस तथाकथित योगी की मंशा ठीक नहीं है और नदी किनारे की कुटिया में उसे मारने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। एक रात वह भेष बदलकर चुपके से महल से निकला, नदी को पार किया और योगी की कुटिया के एक कोने में छुपकर बैठ गया।

कुटिया में उसने जो देखा उससे भय के कारण उसके सर से पाँव तक झुरझुरी दौड़ गई। योगी अग्नि के बीचोंबीच बैठा था। उसके सामने एक वीभत्स शव पीठ के बल पड़ा था। शव की छाती पर एक व्यक्ति बैठा हुआ था। यह आदमी विक्रम का पूर्व असंतुष्ट मंत्री था जिसे उसने पद से हटा दिया था। पूर्व मंत्री कोई मंत्र बुदबुदा रहा था और बीच-बीच में लाल चंदनसार में डुबाया हुआ फूल शव के मुँह में डालता जाता था। कुटिया में लोबान का धुआँ भरा हुआ था। यह मुर्दे को जीवित करने का अनुष्ठान था। लगभग एक घंटे बाद पूर्व मंत्री चिल्लाया, “बोलो बेटे, बोलो!” विक्रम ने भयाक्रांत होकर देखा कि शव के होंठ हिल रहे हैं। पर होंठों से कोई आवाज़ नहीं निकली। पूर्व मंत्री फिर चिल्लाया, “बोलो बेटे, बोलो! मैंने माँ काली को इसलिए तुम्हारी बलि दी, ताकि मैं कृतघ्न राजा से प्रतिशोध ले सकूँ। बोलो बेटे, बोलो!”

पुत्र के हत्यारे ने फिर मृत पुत्र के मुँह में पुष्प, चंदनसार और बेलपत्र डाले। फिर मुर्दे के होंठ हिले, पर कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी। हत्यारा पिता तीसरी बार चिल्लाया, पर व्यर्थ।

निराश पूर्व मंत्री से योगी ने कहा, “धैर्य रखो! कुटिया में अवश्य ही कोई अन्य व्यक्ति है। इसीलिए माँ काली मौन है।” फिर उसने आवाज़ को तेज़ करते हुए कहा, “इस पावन और गुप्त अनुष्ठान को देखने वाले तुम जो कोई भी हो इसी क्षण कुत्ते में बदल जाओगे।”

ऐसा उसने तीन बार कहा। इस बीच विक्रम ने कुटिया से जाने का प्रयास किया, पर वह अपनी जगह हिल भी नहीं सका। उसे लगा जैसे वह धरती में गड़ गया हो। योगी के तीसरे बार कहते ही वह कुत्ते में बदल गया।

अगले दिन सुबह राजा को राजमहल में पाकर मंत्री और अधिकारियों को आशंका हुई कि अवश्य ही राजा के साथ कुछ अघटित घटा है। पर प्रजा में अव्यवस्था फैले इसलिए उन्होंने डोंडी पिटवाई कि महाराज अस्वस्थ हैं। अतः कुछ दिन राजसभा नहीं लगेगी। राजा का पता लगाने के लिए चारों दिशाओं में गुप्तचर भेजे गए। साथ ही मंत्री और वरिष्ठ सभासद वृद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर से परामर्श लेने गए। वराहमिहिर ने गणना करके बताया कि नदी के किनारे रहने वाले योगी ने राजा को कुत्ते में बदल दिया है। उसने मंत्री को बताया, “यह योगी प्रचंड मायावी है। यह महाराज विक्रमादित्य का घोर शत्रु है। यदि चार असुरात्माएँ महाराज की रक्षा नहीं कर रही होतीं तो यह कभी का महाराज को मार चुका होता। अगली शुक्ल द्वितीया को उसका गुप्त अनुष्ठान संपूर्ण होगा। तब काली की महती शक्ति के आगे असुरात्माओं की शक्ति पराभूत हो जाएगी। राजन की रक्षार्थ शीघ्र ही कोई उपाय करना अनिवार्य है।” यह कहकर वराहमिहिर मौन हो गया और गहन चिंतन में डूब गया। चिंता की छाया से वृद्ध ज्योतिषी के मुखमंडल का तेज धूमिल हो गया।

सहसा वराहमिहिर का चेहरा चमक उठा। उसने अपने जुड़वाँ बेटों को बुलाया और उन्हें बताया कि महाराज किस अवस्था में हैं। फिर आगे कहने लगा, “वत्स, वर्षों से हम उनका अन्न खा रहे हैं। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह स्वर्ण अवसर है। अपने प्राण देकर भी हमें महाराज के जीवन की रक्षा करनी चाहिए। क्या तुम तैयार हो?”

सुंदर तरुण भाइयों ने एक स्वर में कहा, “यह तो हमारा सौभाग्य है। कहिए, हमें क्या करना होगा?”

पिता उन्हें नदी पर ले गया और नदी के उस पार बनी कुटिया दिखाकर कहा, “यह एक मायावी की कुटिया है। कुटिया के द्वार पर तुम्हें एक काला कुत्ता दिखेगा। वह यथार्थ में हमारे महाराज हैं। मैं तुम्हें हिरण बना देता हूँ। तुम वहाँ जाओ और कुत्ते को लुभाकर इस पार ले आओ। नदी अधिक गहरी नहीं है। योगी की शक्तियाँ नदी के मध्य तक ही कार्य करती हैं, उससे एक अंगुल भी आगे नहीं। तुम अपनी पूर्ण शक्ति से भागते हुए कुत्ते को उस सीमा के इस ओर ले आओ। जब तक तुम मझधार के उस ओर सुरक्षित नहीं हो। मेरी बात समझ गए न?” फिर वृद्ध ज्योतिषी ने उन्हें हिरण बना दिया। हिरण बने दोनों भाई नदी पार करके कुटिया की ओर बढ़े।

हिरणों को देखकर कुत्ता भौंका और उनके पीछे भागा। हिरण नदी में घुस गए और तेज़ी से तैरने लगे। कुत्ता भी पानी में कूदा और उनका पीछा करने लगा। कुत्ते के भौंकने से योगी की समाधि भंग हो गई। उसने कुत्ते को हिरणों का पीछा करते देखा। पहले तो उसे कोई संदेह नहीं हुआ, पर ध्यान से देखने पर हिरणों का मायावी आवरण उससे छुपा रहा। वह तुरंत ताड़ गया कि वे हिरण नहीं, मनुष्य हैं। पलक झपकते उसने चील का रूप धारण किया और हिरणों की आँखें नोचने के लिए उनके पीछे उड़ा। यह देखकर राजा विक्रम की रक्षा कर रही चार असुरात्माओं ने तुरंत धूल भरा अंधड़ उठाया। जुड़वाँ भाई और राजा मझधार तक पहुँचने वाले ही थे कि चील अंधड़ से निकली और तीव्र गति से नीचे की ओर झपटी और आगे वाले हिरण की एक आँख नोच ली। अगले ही पल हिरणों और कुत्ते ने मध्यरेखा पार कर ली और योगी की शक्तियों के प्रभाव क्षेत्र से बाहर पहुँच गए। चील हवा में मँडराती रही, पर वह सीमा लाँघने का साहस कर सकी।

वराहमिहिर नदी के दूसरे किनारे पर प्रतीक्षा कर रहा था। हिरणों और कुत्ते को उसने पुनः मनुष्य बना दिया। राजा और उसके सभासदों ने महान ज्योतिषी का बहुत उपकार माना। सब प्रसन्न थे। यद्यपि वृद्ध ज्योतिषी के एक पुत्र की आँख फूटने से उनकी प्रसन्नता को किंचित ग्रहण अवश्य लग गया था। राजधानी में डोंडी पिटवा दी गई कि वराहमिहिर ने महाराज को संघातक रोग से मुक्त कर दिया है। राजा के भेष बदलकर कुटिया पर जाने और मायावी योगी के बारे में कुछ नहीं बताया गया।

योगी के शिष्यों की संख्या और उसकी शक्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। राजा की रक्षक चार असुरात्माओं ने उससे कह दिया था कि योगी की बढ़ती अशुभ शक्ति के आगे शीघ्र ही उनकी शक्ति व्यर्थ हो जाएगी। राजा ने वराहमिहिर से पूछा कि इसका क्या उपाय किया जाए। वराहमिहिर ने गणना करके बताया, “राजन, मुझमें इतनी शक्ति नहीं कि मैं इस योगी का सामना कर सकूँ। मैं केवल तीन विद्याएँ जानता हूँ, पर उसने तेरह विद्याएँ सिद्ध कर रखी हैं। समाधि-अवस्था में मैंने सारा संसार छान मारा, पर चीन की राजकुमारी के अतिरिक्त इससे बड़ा मायावी मुझे नहीं मिला। केवल वही आपको बचा सकती है। वह चौदह विद्याएँ जानती है। यदि आप उससे विवाह कर लें तो आपका जीवन सुरक्षित हो जाएगा।”

राजा ने राजकाज मंत्रियों को संभलाया और चीन देश की यात्रा पर निकल पड़ा। मंत्रियों ने बहुत प्रयास किया कि वे इस विकट यात्रा पर जाएँ, पर राजा ने उनकी बातों पर कान नहीं दिया। अपने विख्यात जलअश्व पर बैठकर चल पड़ा जो जल और थल दोनों पर पवनगति से चलता था।

घोड़े पर कई दिन चलने के उपरांत उसने एक पथिक से पूछा, “मित्र, यह किसका राज्य है?” पथिक ने उसे अचरज से देखते हुए कहा, “आप नहीं जानते? यह महाप्रतापी राजा विक्रमादित्य का राज्य है।” वह चलता रहा, चलता रहा। जब भी वह पूछता उसे पता चलता कि यह उसी का राज्य है। अपने राज्य के विस्तार और समृद्धि का उसे पहली बार प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों इस राज्य को अपने वंश के लिए सुरक्षित रखने की उसकी कामना बलवती होती गई। कई महीने लगातार चलने के पश्चात उसने अपने राज्य की सीमा पार की और चीन देश में प्रवेश किया। उसके उपरांत भी वह हफ़्तों चलता रहा तब कहीं वह चीन की राजधानी पहुँचा। रात काफ़ी हो गई थी। उसने शहर के बाहर एक बग़ीचे में पड़ाव डाला। घोड़े को पेड़ से बाँधकर वह लेट गया। शीघ्र ही उसे नींद गई।

संयोग की बात कि कुछ चोर उधर से निकले। जलअश्व को देखकर उन्होंने उसे अच्छा सगुन समझा। चारों के मुखिया ने कहा, “आज जितना माल हमारे हाथ लगेगा उसमें यह माँगलिक घोड़ा भी बराबर का साझेदार होगा।” वे शहर में घुसे और राज्य के ख़ज़ाने में सेंध लगाई। उन्होंने सारे हीरे-मोती और सोने-चाँदी को अपने क़ब्ज़े में किया और वापस उसी पेड़ के नीचे आए जहाँ राजा विक्रम सो रहा था। चोरी के माल का बँटवारा हुआ। नवलखा हार घोड़े के हिस्से में आया। चोरों ने उसे घोड़े के गले में बाँधा और अपने रास्ते लगे। उधर राजमहल में चोरी का पता लगते ही सैनिक चारों दिशाओं में चोरों को खोजने लगे। कुछ सैनिक उस स्थान पर आए जहाँ विक्रम सो रहा था। उन्होंने घोड़े के गले में झूलते नवलखे हार को देखा। उन्होंने विक्रम को झिंझोड़कर जगाया और उसके हाथ-पैर बाँधकर उसे घोड़े समेत चीन के राजा के पास ले गए। विक्रम अपना यथार्थ परिचय नहीं देना चाहता था। सो उसने अपने होंठ सी लिए और दंड भुगतने के लिए तैयार हो गया। चीन के राजा को लगा कि वह भी चोरों के गिरोह में शामिल था और अपने साथियों के बारे में कोई जानकारी नहीं देना चाहता। सो उसने सैनिकों को आदेश दिया कि उसके हाथ-पैर काटकर शहर के चौक में फेंक दें।

हाथ-पाँव-विहीन विक्रम क्रूर दंड से कराहता चौक में पड़ा था। आने-जाने वाले उस पर ताने कसते और गालियाँ देते। सारे दिन वह वहाँ पड़ा रहा। अधिक रक्त बहने से उसे मूर्च्छा-सी आने लगी, पर किसी ने उस पर दया नहीं की। रात को एक तेली उधर से निकला। विक्रम की दुर्दशा देखकर उसका जी भर आया जो अभी भी सुंदर युवा था। उसने विक्रम के घावों पर पट्टी बाँधी और उसे हौले-से उठाकर अपने घर ले गया। तेली की पत्नी बहुत झगड़ालू और दुष्ट थी। यह देखकर कि उसका पति क्या उठा लाया है वह गला फाड़कर चिल्लाई, “अरे मूर्खों के सरदार, इस गंदे डुंड को क्यों उठा लाए? क्या तुम्हें पता नहीं कि वह अपराधी है और राजा के हाथ-पैर कटवाकर इसे दंडित किया है? यदि महाराज को पता चला कि हमने इस पापी को शरण दी है तो वे हमें हमारे कोल्हू में ही पेलवा देंगे। इसे जहाँ से लाए हो वहीं पटक आओ!” पर दयालु तेली ने निर्दय पत्नी की बात को अनसुना कर दिया। बोला, “मुझे पता है कि मैं क्या कर रहा हूँ। यह असहाय है। मैंने इसे बेटा कहा है। तुम भी इसे अपना बेटा मानो। भलाई के काम में टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। जाओ, थोड़ा मरहम तैयार करके लाओ और बेचारे के पट्टी बाँधने में मेरी सहायता करो!”

तेलन ने मरहम-पट्टी और घायल की देखभाल में पति का हाथ बँटाया। कुछ दिनों में विक्रम के घाव भर गए। उसकी शक्ति धीरे-धीरे लौटने लगी। तब तेली ने उसे कोल्हू की गद्दी पर बिठा दिया। उस दिन से वह दिन भर कोल्हू की गद्दी पर बैठा बैलों को हाँकता रहता।

एक दिन तेली ने देखा कि उसका रक्षित बहुत गंदा और तेल के कचाकच है। उसे स्नान कराना चाहिए। उसने पत्नी से कहा, “हम आज अपने बेटे का स्नान कराएँगे। उसकी दशा तो देखो!”

विक्रम ने तुरंत कहा, “बाबा, मैं तभी स्नान करूँगा जब तुम मुझे राजकुमारी के ग्रीष्म-उद्यान के तालाब पर स्नान कराओगे। नहीं तो मैं ऐसे ही ठीक हूँ।”

तेलन हाथ नचाते हुए चिल्लाई, “लो और सुनो! छछूंदर के सर में चमेली का तेल! डुंडराजा स्नान करेंगे तो राजकुमारी के तालाब में करेंगे, नहीं तो करेंगे ही नहीं! क्या तुम्हें पता नहीं कि उस बाग़ की सोने की रविश पर मर्द पाँव भी नहीं रख सकता? सुनो जी, गंदे डुड की सनक के लिए अपने प्राण संकट में डालने की मूर्खता मत कर बैठना!”

तेली ने इतना ही कहा, “मैं करूँगा। यह मेरा बेटा है। चाहे जो मोल चुकाना पड़े, मैं इसकी यह छोटी-सी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा।”

अँधेरा होने पर वह विक्रम को कंधों पर बिठाकर चीन की राजकुमारी के ग्रीष्म-उद्यान के तालाब पर ले गया। उस समय वहाँ कोई पहरेदार नहीं था। तेली ने उसे तालाब के किनारे बिठा दिया। विक्रम ने उससे कहा कि अब वह यहाँ से चला जाए और आधी रात को वापस आकर उसे घर ले जाए। मुँहबोले अपंग बेटे को अकेला छोड़कर जाने के लिए तली का मन नहीं माना। पर विक्रम ने उसे समझा-बुझाकर भेज दिया। तेली चला तो गया, पर उसके मन में खटका लगा रहा।

तेली के जाने के बाद विक्रम घिसटता हुआ तालाब में घुसा। वह जितनी अच्छी तरह से नहा सकता था नहाया और कपड़े बदलकर पूजा करने लगा। पूजा से निवृत होकर उसने आकाश की ओर देखा-आधी रात होने में अब अधिक देर नहीं थी। आत्मा के तार झंकृत करने वाली गहरी और मोहक आवाज़ में वह दीपक राग गाने लगा। वह स्वयं इस राग का रचयिता था। इस राग को उसके अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था। दीपक राग के गायन में वायुदेवता और अग्निदेवता उसके वश में हो जाते थे और वह उनसे कुछ भी करवा सकता था। दीपक राग राजा विक्रम के नाम से जाना जाता था। उसके दीपक राग गाने से नगर के सारे दीए अपने-आप जल गए। लोग यह देखकर चकित रह गए कि बुझे हुए दीए स्वतः कैसे जल गए! ऐसा था दीपक राग का चमत्कार!

जैसे-जैसे गायन का स्वर ऊँचा और तीव्र होता गया दीए और तेज़ जलने लगे। राग के मद्धिम होने से दीए भी मद्धिम हो गए और गान समाप्त होने पर पुनः बुझ गए। नगर पुनः घने अंधकार में डूब गया।

दीपक जलने से राजकुमारी की आँखें खुल गईं। वह तुरंत समझ गई कि राजा विक्रम के अलावा यह चमत्कार कोई नहीं कर सकता। उसके हृदय की गति बढ़ गई। भारत के विश्वविख्यात सम्राट विक्रमादित्य को देखने और उससे विवाह करने की उसकी सुप्त आकांक्षा जाग उठी। गुप्तविद्या से वह यह जान गई कि विक्रम इसी नगर में है और भेष बदलकर किसी तेली के यहाँ रुका हुआ है।

अर्धरात्रि के कुछ देर बाद तेली उद्यान में आया और विक्रम को अपनी झोंपड़ी पर ले जाकर सुला दिया। सुबह सूरज सर पर चढ़ आया, पर रतजगे के कारण तेली सोया ही रहा। उसे सैनिकों ने जगाया और कहा कि उसे राजकुमारी बुला रही हैं। बेचारा तेली काँपने लगा। उसने समझा कि राजकुमारी को उसके बाग़ में जाने का पता चल गया। पर राजमहल पहुँचकर उसने सुख की साँस ली। उसने देखा कि नगर के सभी तेली राजकुमारी के सामने हाथ जोड़े पंक्तिबद्ध खड़े हैं।

राजकुमारी कोतवाल की ओर मुड़ी। पूछा, “नगर के सब तेली गए? कोई पीछे तो नहीं रहा?”

कोतवाल ने झुककर निवेदन किया कि वह सबको हाँक लाया है, एक को भी पीछे नहीं छोड़ा। तब राजकुमारी ने तेलियों से कहा—

“कान खोलकर सुनो! कल सवेरे सूरज निकलते ही तुममें से प्रत्येक मुझे सौ मन तेल लाकर देगा। जो नहीं लाएगा उसे और उसके घर वालों को उसी के कोल्हू में पेलवा दिया जाएगा। अब तुम जाओ!”

रोते-धोते और राजकुमारी की सनक को कोसते हुए तेली अपने-अपने घर चले गए।

यह तेली भी मुँह लटकाए हुए घर आया। जैसा कि आप सोच सकते हैं उसमें और तेलन में तकर होने लगी। झगड़ालू तेलन को शीघ्र ही पता चल गया कि पति के चेहरे में हवाइयाँ क्यों उड़ रही हैं। उसके मुँह से अँगारे बरसने लगे, “समझदारी से तो तुम्हारा जन्मों का बैर है। मैंने नहीं कहा था कि इस अभागे डुंड को घर में मत रखो। अब भुगतो अपनी करनी का फल! जब से यह आया है नित कोई कोई विपत्ति तैयार रहती है। कहाँ से लाओगे सौ मन तेल? तुम्हारी मूर्खता से हम सब मारे जाएँगे।” कहते-कहते वह छाती-माथा कूटते हुए रोने लगी। बेचारा तेली क्या उत्तर देता! उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। किसी ने मुँह में दाना तक नहीं डाला। सब घोर निराशा से सर पकड़कर बैठे रहे।

असहाय विक्रम दिन भर कोल्हू की गद्दी पर भूखा-प्यास बैठा रहा। साँझ को उसने तेली को बुलाकर पूछा कि क्या बात है, आज घर में खाना क्यों नहीं बना। तेली ने झिझकते हुए उसे सारी बात बता दी। कहते-कहते वह रोने लगा। तेलन फिर पति को और उसके मुँहबोले बेटे को बुरा-भला कहने लगी। विक्रम ने कहा, “बाबा, एक दिन सबको मरना है। यदि हमारी मृत्यु कल लिखी है तो वही सही! पर हम भूख से क्यों मरे? मृत्यु का सामना हमें वीरता से करना चाहिए। जाओ, खाने की तैयारी करो!” ऐसे ही कुछ तर्कों के उपरांत तेली-तेलन खाना बनाने के लिए मान गए। खाना बनाते हुए उन्हें लगा कि यह उनका अंतिम खाना है। प्रातः उनकी मृत्यु निश्चित है। उनकी आँखों की नींद उड़ गई। पर अंततः थकान ने विजय पाई और वे ख़र्राटे भरने लगे।

उनकी आँख लगते ही विक्रम धीमे स्वर में राग भैरवी गाने लगा। पलक झपकते उसकी रक्षक चार असुरात्माएँ प्रकट हुईं और बोलीं, “ओ अग्निवंशी महान राजा, यह आपने क्या दशा बना रखी है? इस अपंग शरीर में आप कब तक छुपे रह सकते हैं? कहिए, हमारे लिए क्या आदेश है?”

राजा ने कहा, “तुम मेरे विश्वसनीय मित्र हो। शीघ्र ही मैं अपने सच्चे रूप में जाऊँगा। तुमने सदैव मेरी सहायता की है। आज फिर मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है। मुझे सौ मन बढ़िया तेल चाहिए।” चारों वीरात्माएँ ओझल हो गईं। बात की बात में तेली का घर और बाड़ा तेल के हज़ारों काले घड़ों से भर गया।

बुरे सपनों के कारण तेली ठीक से सो सका। एक सपना तो इतना डरावना था कि वह चीख़ मारकर उठ बैठा। उसकी चीख़ सुनकर पड़ोसी जाग गए। आँखें खुलते ही उसकी दृष्टि पंक्तिबद्ध काले घड़ों पर पड़ी। उन्हें सैनिक समझकर वह चिल्ला पड़ा, “बचाओ, बचाओ! वे मुझे मारने आए हैं।” यह समझने में उसे थोड़ी देर लगी कि ‘सैनिक’ एकदम अविचल खड़े हैं। पास जाकर देखा तो उसका संत्रास हर्ष में बदल गया। तेल के इतने घड़े! उसे पता नहीं था कि ये घड़े कहाँ से आए। प्रसन्नता से बौराया हुआ वह दौड़ता हुआ राजमहल गया और राजकुमारी को बताया कि सौ मन तेल तैयार है। राजकुमारी समझ गई कि राजा विक्रम इसी तेली के यहाँ रुका हुआ है। विक्रम की चारो वीरात्माएँ ही इतने कम समय में इतना तेल ला सकती हैं। राजकुमारी ने शेष सब तेलियों को वापस भेज दिया जो काँपते हुए उसे यह बताने आए थे कि वे उसकी माँग के अनुसार तेल नहीं जुटा पाए हैं। पर उसने इस तेली को रोक लिया। जब शेष सब तेली चले गए तो राजकुमारी ने उससे पूछा, “सच-सच बताओ, तुम्हारे घर में कौन रुका हुआ है?”

तेली ने हकलाते हुए कहा, “कोई नहीं दयानिधान! मेरी पत्नी और एक असहाय डुंड के अलावा घर में कोई नहीं है। वह मेरा मुँहबोला बेटा है। उसे मैं नगर के चौक से उठाकर लाया था। भगवान की सौगंध, और कोई नहीं है अन्नदाता।”

राजकुमारी समझ गई कि यह डुंड ही राजा विक्रम है। उसने तेली से कहा, “दो महीने पश्चात पूर्णिमा के दिन मेरा स्वयंवर है। पिताजी ने उसके लिए सारे संसार के राजाओं और राव-उपरावों को निमंत्रण भेजा है। नगर के सब लोग भी आएँगे। तुम भी अपने डुंड को लेकर आना। यह निमंत्रण भी है और आदेश भी, यह स्मरण रखना। अब तुम जा सकते हो।”

बहुत बड़े पैमाने पर स्वयंवर की तैयारियाँ की गईं। स्वयंवर के कुछ दिन पहले से ही संसार के कोने-कोने से राजा और राजकुमार आने लगे। राजधानी के चारों ओर एक से एक सुंदर तंबुओं की पंक्तियाँ सज गईं। प्रत्येक यही सोचता था कि राजकुमारी उसी के गले में माला डालेगी। स्वयंवर के दिन रेशमी पोशाकें और अमूल्य रत्न पहनकर सभी विशाल भव्य तंबू में एकत्र हुए। भीड़ में एक तरफ़ यह तेली भी खड़ा था। विकलांग विक्रम को उसने अपने कंधों पर बिठा रखा था। दोनों अपने सबसे अच्छे कपड़ों में थे। पर उनके वे कपड़े राजसी अतिथियों के सेवकों की सजधज के आगे चिथड़े से लगते थे।

सहसा दो सेविकाओं के साथ राजकुमारी सभा में आईं। उसके सौंदर्य के तेज़ से सबकी आँखें चौंधिया गईं। उसके हाथों में फूलों की माला थी। वह चारों ओर इस तरह दृष्टि दौड़ाने लगी मानो किसी को ढूँढ़ रही हो। अंततः उसे एक कोने में खड़ा यह तेली दिख गया। वह दृढ़ता से उस ओर बढ़ी और डुंड के गले में माला डाल दी। यह देखकर सब स्तब्ध रह गए। सभा में सन्नाटा छा गया। चीन के राजा के गाल पर जैसे तमाचा पड़ा। इस घृणास्पद चुनाव को राजसी अतिथि विस्फारित मेत्रों से देखते रह गए।

पर स्वयंवरा के चयन पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती थी। अपंग वर और तेली को गाजों-बाजों के साथ राजमहल में ले जाया गया। चीन का राजा जानता था कि तेली के पास एक टूटी-फूटी झोंपड़ी के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उसने कोषाध्यक्ष को सारा प्रबंध करने का आदेश दिया। राज्य के कर्मचारी तेली के घर पहुँचे। तेली और तेलन दौड़-धूप में व्यस्त हो गए। पर विक्रम ने उन्हें कुछ भी करने से मना कर दिया। राज्य के कर्मचारियों को भी उसने वापस भेज दिया। रात को उसने फिर अपने मुँहबोले पिता से राजकुमारी के उद्यान के तालाब पर ले चलने का अनुरोध किया। वहाँ पहुँचकर विक्रम ने उससे कहा, “बाबा, अब तुम जाओ! भोर से थोड़ा पहले आकर मुझे ले जाना।”

तेली के जाने के पश्चात वह राग दीपक गाने लगा। अद्भुत राग के मायावी सुर हवा में घुलते ही नगर के दीए अपने-आप जल गए। राजकुमारी जाग गई और इस अनहोनी को देखा। उसने तुरंत अप्सरा का रूप धरा और उद्यान में गई। विक्रम उसे इस भेष में पहचान सका। अप्सरा ने कहा, “राजन, आपका गायन सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुई। बोलिए, क्या माँगते हैं?”

राजा ने कहा, “ओ इंद्र की अप्सरा, मेरी अपंगता दूर कर दो! मुझे मेरे अंग लौटा दो!”

यह सुनकर वह अदृश्य हो गई और कुछ पल बाद उसके कटे हुए हाथ-पैर लेकर वापस आई। यथास्थान लगाते ही हाथ-पैर शरीर से जुड़ गए। फिर वह वापस महल में चली गई।

तब राजा ने चार वीरात्माओं का आह्वान किया। पलक झपकते वे उपस्थित हो गए। कहा, “क्या आदेश है स्वामी?”

राजा ने कहा, “मित्रो, वर्षों की तपस्या के पश्चात मुझे तुम्हारी सेवाएँ प्राप्त हुई थीं। तुम लोगों ने मेरी सेवा में कोई कमी नहीं रखी। अब मेरी दासता से तुम्हारी मुक्ति का समय निकट गया है। तुम निरुद्देश्य हवा में इधर-उधर डोल रहे थे। मैंने तुम्हें चैतन्य प्रदान किया। शीघ्रता से मेरे राज्य में जाओ और मेरी समूची सेना लेकर आओ! चीन की इस राजधानी के चारों ओर कोसों तक तंबुओं का शिविर लगा दो। सोने-चाँदी के उपकरणों से सजे मेरे हाथियों और घोड़ों को आदेश के लिए तैयार रखो! मेरे मित्र तेली की झोंपड़ी को महल में बदल दो! हीरे-मोतियों और सोने से उसके भंडार भर दो! महल में गणवेशधारी सेवक हों। सब-कुछ भारत के शासक विक्रमादित्य की प्रतिष्ठा के अनुरूप होना चाहिए। सूरज निकलने से पहले सारा काम हो जाए यह ध्यान रखना!” वीरात्माओं ने उसे प्रणाम किया और हवा में विलीन हो गईं।

तेली पास ही छुपा हुआ था। यह सब देखकर वह काँपता हुआ सामने आया और विक्रम के पाँवों में गिर पड़ा। रोते हुए बोला, “भारत के सम्राट, मुझे क्षमा करें!” विक्रम ने शीघ्रता से उसे उठाया और मृदुल स्वर में कहा, “बाबा, मैं सदैव आपका बेटा ही रहूँगा। विपत्ति में आपने जो मेरी सहायता की, उससे मैं कभी उऋण नहीं हो सकता। पौ फटने वाली है। चलिए, घर चलें!”

दोनों लौट पड़े। टूटी-फूटी झोंपड़ी के स्थान पर विशाल महल को देखकर तेली की आँखें ललाट में चढ़ गईं। झगड़ालू तेलन उनकी अगवानी करने महल के बाहर आई। राजसी पहनावे में वह रानी से कम नहीं लग रही थी। उसका हर्ष आकाश को छू रहा था। उसकी गालियाँ नमनीयता और मुस्कान में बदल गई थी।

असुरात्माओं ने सारा कार्य भोर से पहले निपटा दिया था। चीन के राजा को सूचना मिली कि किसी विशाल सेना ने चमत्कारिक रूप से रातोंरात राजधानी को घेर लिया है। मुँह में तिनका दबाकर वह अदेर राजमहल से बाहर आया। पर विक्रम ने अपने ससुर का शिष्टता से स्वागत किया। जिस घृणित डुंड को उसकी बेटी ने चुना वह वास्तव में प्रतापी सम्राट विक्रमादित्य है यह जानकर उसे कितना हर्ष हुआ इसका बखान कौन कर सकता है! यह समाचार आग की तरह पूरे नगर में फैल गया। आमंत्रित राजा और राजकुमार, जो राजकुमारी के चुनाव से निराश थे और डुंड की हत्या की योजना बना रहे थे, समूह में आए और सफल प्रतिद्वंद्वी राजा विक्रम को प्रणाम किया।

विवाह के लिए भव्य समारोह का आयोजन किया गया। चार वीरात्माओं द्वारा चमत्कारिक रूप से निर्मित विशाल तंबू में ऊँचे मंच पर विराजमान वर-वधू ने राजसी अतिथियों के साथ दिव्य नृत्य देखा। नृत्य के बीच यह सूचना मिली कि कुछ नट अतिथियों के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करना चाहते हैं। विक्रम ने उन्हें भीतर लाने का आदेश दिया। उनके भीतर आते ही विक्रम ने नटों के रूप में सम्मिलित अपने शत्रु योगी और पूर्व मंत्री को पहचान लिया। उन्हें देखकर विक्रम का मुख पीला पड़ गया। राजकुमारी सब समझ गई। वह फुसफुसाई, “चिंता करें! देखते जाइए, उनकी दुर्भावना कैसे उन्हीं का अंत करती है!”

नट ‘मुर्दा जी उठा’ नामक खेल दिखाने लगे। पूर्व मंत्री ने लंबे संदूक़ से अपने बेटे का सुरक्षित रखा शव निकाला। शव को धरती पर लिटाकर पूर्व मंत्री उसकी छाती पर बैठ गया। योगी ने एक घेरे में आग जलाई और उसके बीच में बैठ गया। बाक़ी नट ढोलक और खंजरी बजाने लगे। शव उसकी छाती पर बैठे व्यक्ति सहित धीरे-धीरे हवा में ऊपर उठने लगा और देखते-देखते अदृश्य हो गया। शीघ्र ही ऊपर से शस्त्रों की टकराहट और हुँकार सुनाई देने लगी। फिर धरती पर एक-एक कर शरीर के अंग गिरने लगे। कभी हाथ, कभी पाँव, कभी धड़ तो कभी सर फिर पूर्व मंत्री नीचे आया और बोला, “राजन, अभी आपने मुर्दे के टुकड़ों को देखा। अब मैं इन्हें पुनः जोड़ूँगा और मुर्दे को जीवित करूँगा।” उसने बारी-बारी से शव के टुकड़ों को यथास्थान रखा। फिर योगी ने उसे आग में से एक मुट्ठी भस्म दी। भस्म को शव पर छिड़कते ही सारे अंग जुड़ गए और शव जीवित हो गया। वह उठ खड़ा हुआ और चिल्लाया, “पिताजी, मुझे भूख लगी है। कुछ खाने को दो!” पूर्व मंत्री ने विक्रम की ओर संकेत करते हुए कहा, “चीता बनकर अपने शत्रु को खा लो!”

पुनः जी उठा शव तत्काल चीते में बदला और विक्रम की ओर झपटा। पर राजकुमारी के हाथ हिलाते ही चीता तेजी से पलटा और भयंकर दहाड़ की, मानो उसे विद्युत का झटका लगा हो) चीता क्रोध से खौलता हुआ पूर्व मंत्री पर टूट पड़ा। इससे पहले कि योगी कुछ कर पाता, चीते ने पूर्व मंत्री के चिथड़े-चिथड़े कर दिए और तंबू से बाहर चला गया। योगी अदेर आग के घेरे से निकला और भागने लगा।

राजकुमारी ने फिर अपना हाथ हिलाया। योगी वहीं का वहीं खड़ा हो गया, मानो धरती में गड़ गया हो। राजकुमारी ने कड़कते हुए स्वर में कहा, “नीच मायावी, दिव्य शक्तियों का तुमने बहुत अधम उपयोग किया। वे ही तुम्हें दंड देंगी। मुझे कुछ करने की आवश्यकता नहीं। तुम जीवन भर भाव-संज्ञा-विहीन पशु के समान भटकते रहोगे।” राजकुमारी के फिर हाथ हिलाते ही वह सब मानवीय शक्तियों से वंचित हो गया। मानो उस चमत्कारिक हाथ ने उसका सारा तेज़ सोख लिया हो।

नवविवाहिता के साथ विक्रम अपने देश लौट आया। उसे देखकर उसकी प्रजा की प्रसन्नता का पार रहा। राजा विक्रम और चीन की राजकुमारी ने लंबी आयु पाई और संपूर्ण सुखों का भोग करते हुए अपना जीवन व्यतीत किया।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 277)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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