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तेनालीराम और ब्राह्मण

tenaliram aur brahman

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राजा कृष्णचंद्र राय की माँ मरणासन्न थी। उसने कहा, “मैं मरने से पहले एक मीठा आम खाना चाहती हूँ। यह मेरी अंतिम इच्छा है।” पर हाय रे भाग्य! उस समय आम का मौसम नहीं था। राजा ने चारों दिशाओं में दूर-दूर तक अपने आदमी भेजे। कई सप्ताह पश्चात वे एक छोटा-सा आम लेकर आए। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस बीच राजमाता स्वर्ग सिधार गई थी। राजा को बहुत दुख हुआ। मरणासन्न माँ की इतनी-सी इच्छा भी वह पूरी कर सका। उसे यह भय भी था कि माँ की अतृप्त आत्मा यहीं महल में भटकती रहेगी और उन्हें परेशान करेगी। अतः उसने ब्राह्मणों को दरबार में बुलाया और उनसे पूछा कि माँ की आत्मा की शांति के लिए उसे क्या करना चाहिए। ब्राह्मणों ने सुझाया कि राजा सौ ब्राह्मणों को सोने का एक-एक आम दान करें। इससे राजमाता की आत्मा संतुष्ट हो जाएगी। राजा ने तत्काल राजस्वर्णकार को सोने के सौ आम बनाने का आदेश दिया और शुभ मुहूर्त में ब्रह्मभोज और सोने के आम दान देने का निश्चय किया।

ब्रह्मभोजस्थल को जाने वाला रास्ता तेनालीराम के घर के सामने से होकर जाता था। तेनालीराम अपने घर के आगे बने चबूतरे पर खड़ा हो गया। उसके पास लाल सुर्ख़ अँगारों की अँगीठी और लोहे की छड़ें रखी थीं। उसने ब्राह्मणों से कहा, “महाराज ने कहा है कि जो ब्राह्मण गर्म छड़ का दाग़ लगवाएगा उसे दो सोने के आम मिलेंगे।” ब्राह्मण लालची थे। वे तुरंत दाग़ लगवाने के लिए तैयार हो गए। कइयों ने तो एक से अधिक दाग़ लगवाए। दाग़ लगवाकर वे कराहते हुए राजमहल पहुँचे। पर प्रत्येक को सोने का एक-एक आम ही मिला। उन्होंने राजा को लोहे की छड़ से दागे जाने के निशान दिखाए तथा और आम देने की माँग की। राजा उन पर बरस पड़ा। तब ब्राह्मणों ने उसे बताया कि उसके चहेते तेनालीराम ने उनके साथ क्या किया। राजा के आग-आग लग गई। उसने अदेर तेनालीराम को बुलवाया और उससे जवाब तलब किया। तेनालीराम ने कहा, “दयानिधान, जब मेरी माँ मरी तब वह गठिया से पीड़ित थी। वैद्य ने बताया कि जोड़ों पर दाग़ लगाना गठिया का अचूक इलाज है। पर मैं कुछ कर पाता उससे पहले ही बेचारी माँ चल बसी।

यह सुनकर कि महाराज राजमाता की आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मणों को सोने के आम दान दे रहे हैं तो मैंने सोचा कि मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए। मुझे प्रसन्नता है कि इन ब्राह्मणों की अनुकंपा से राजमाता और मेरी माँ दोनों की आत्मा को शांति मिल गई।”

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 221)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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