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पोखरे में चाँद

pokhre mein chaand

उसका नाम था मोई और उसकी पड़ोसन का नाम था जोई। मोई और जोई में सदा खटपट होती रहती थी। उन दोनों स्त्रियों के पति भी उनकी इस खटपट से तंग जाते थे किंतु इससे उन दोनों पर कोई असर नहीं होता था।

मोई के घर के आँगन में एक छोटा-सा पोखरा था जिसमें मोई ने रोहू मछलियाँ पाल रखी थीं। जब उसका मन करता अपने पोखरे से मछली निकालती और उसे पकाकर स्वयं खाती और अपने परिवार को खिलाती। जोई के घर के आँगन में भी एक पोखरा था। जिसमें उसने भी रोहू मछलियाँ पाल रखी थीं। वह भी जब जी करता अपने पोखरे से रोहू मछली निकालती और उसे पकाकर स्वयं खाती तथा अपने परिवार को खिलाती।

एक बार मोई के पोखरे की सभी मछलियाँ समाप्त हो गईं। उसी दिन उसके मायके से उसका भाई आया। मोई को लगा कि अपने भाई को मछलियाँ खिलाना आवश्यक है अतः वह मन मारकर जोई के पास पहुँची। उसने जोई से मछलियाँ माँगी। जोई तो पहले ही मोई को नीचा दिखाने का अवसर ढूँढ़ रही थी।

‘मोई बहन, मैं तुम्हें मछलियाँ अवश्य दे देती किंतु आज मेरे पोखरे की मछलियों की रिश्तेदार मछलियाँ आई हुई हैं इसलिए मैं तुम्हें मछलियाँ नहीं दे सकती हूँ।’ जोई ने इठलाते हुए कहा।

‘क्या सचमुच?’ मोई ने आश्चर्य प्रकट किया।

‘विश्वास हो तो चलकर देख लो।’ जोई ने कहा।

जोई मोई को अपने पोखरे के पास ले गई। पोखरे में सभी मछलियाँ एक जैसी थीं। मोई यह नहीं कह सकती थी कि उनमें मछलियों की रिश्तेदार नहीं हैं।

‘कोई बात नहीं जोई बहन।’ मोई ने कहा लेकिन मन ही मन कुढ़ने लगी। वह समझ गई कि जोई उसे नीचा दिखाने का प्रयास कर रही है।

कुछ दिन बात कुछ ऐसा संयोग बना कि जोई के घर अतिथि आए और उसके पोखरे की मछलियाँ समाप्त हो चुकी थीं। अब जोई के पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं था कि वह मोई से मछलियाँ माँगे। उसने मोई से मछलियाँ माँगी।

‘जोई बहन, अगर मेरे मछलियों के पोखरे में चाँद ठहरा होता तो मैं तुम्हें मछलियाँ अवश्य दे देती।’ मोई ने कहा।

‘क्या सचमुच?’ अब जोई ने आश्चर्य प्रकट किया।

‘विश्वास हो तो चलकर देख लो।’ मोई ने कहा।

उस समय तक आसमान में चाँद निकल आया था और उसका प्रतिबिंब पोखरे के जल में पड़ रहा था। जोई ने पोखरे में चाँद का प्रतिबिंब देखा तो उससे कुछ कहते बना। वह अपना-सा मुँह लेकर लौट गई तथा मोई से बदला लेने के उपाय सोचने लगी। जबकि मोई जोई से बदला लेकर मुस्कुराती रही।

मोई और जोई के पतियों ने जब यह दृश्य देखा तो वे आपस में कह उठे, ‘देखा, झगड़े से झगड़ा बढ़ता है और बात से बात। अतः झगड़ा और बात कभी नहीं बढ़ानी चाहिए।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 252)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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