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बितनवाँ

bitanvan

अन्य

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एक लड़का था। उसका नाम बितनवाँ था। स्वभाव से वह बहुत चंचल और कुशाग्र बुद्धि का था। वह बहुत छोटे क़द-काठी का था, इसलिए शायद लोग उसे बितनवाँ (बित्ता भर) बुलाते थे। एक दिन उसने अपनी माँ से कहा, “हे मइया हमरा एक भैंस ख़रीद दे। ओकरा चारा चरावे ले जाएम, ओकरा खिलायम-पिलायम और ख़ूब सेवा करम। ओकर दूध से हमर आमदनी भी बढ़त।” माँ को उसके विचार बहुत नेक और अच्छे लगे। माँ ने उसे भैंस ख़रीदने की इजाज़त दे दी। बितनवाँ उसकी ख़ूब सेवा करने लगा। वह उसे रोज़ चारा चराने नदी किनारे ले जाता था।

एक दिन की बात है। बितनवाँ भैंस को नदी किनारे चरते छोड़ खाना खाने के लिए घर गया। पास ही में राजा का बग़ीचा था। घास चरते-चरते भैंस राजा के बग़ीचे में चली गई और बगान में लगे बैंगन के पेड़ खा गई। फिर क्या था राजा के पास यह बात पहुँची। राजा ने आव देखा ताव। भैंस को जान से मार दिया। यह देखकर बितनवाँ हक्का-बक्का रह गया। उसने राजा से कहा, “राजा, मेरी भैंस को तो आपने जान से मार दिया, आपसे बस इतनी विनती है कि मुझे उसका चमड़ा दे दीजिए।” राजा ने कहा है, “ठीक है, उसका मैं क्या करूँगा, ले जाओ।” बितनवाँ भैंस का चमड़ा लेकर चल दिया। चलते-चलते एक बाग़ में पहुँचा। उस बग़िया में ताड़ के पेड़ थे। वहाँ पर रात में सारे चोर आते थे और चोरी में मिले सामान का बँटवारा करते थे।

शाम ढलते ही बितनवाँ ताड़ के पेड़ पर चढ़ गया। जैसे ही थोड़ी रात ढली, सारे चोर सामान के साथ उस बाग़ में गए। उन्होंने सामान बाँटना शुरू ही किया था कि बितनवाँ ने ऊपर से भैंस का चमड़ा उन पर गिरा दिया। सारे चोरों की हवा गुम हो गई, वे काफ़ी डर गए। उनमें से एक ने कहा, “अरे बाप रे! पेड़ पर भूत रहता है। भागो यहाँ से।” वे सारे सामान छोड़कर जान बचाकर भाग निकले। बस फिर क्या था, बितनवाँ पेड़ से नीचे उतरा और सारा सामान लेकर अपने घर गया। उसने अपनी माँ को कहा, “लो माँ! इतने सारे रुपए-पैसे।” उसकी कोठी रुपए-पैसों से भर गई।

राजा को जाने कैसे यह बात पता चल गई कि बितनवाँ को बहुत सारा रुपया-पैसा मिला है। राजा ने उसे डपटते हुए पूछा, “रे बितनवाँ! तुम्हें इतना रुपया-पैसा कहाँ से मिला?” उस बेचारे ने सच-सच सारी बात बता दी। अगले दिन राजा ने भी वैसा ही किया। पर अब चोर सतर्क हो गए थे। दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। उन्होंने अपना ठिकाना बदल दिया था। राजा को ख़ाली हाथ लौटना पड़ा। वह बहुत ग़ुस्से में था। उसने बितनवाँ के घर में आग लगवा दी जिससे उसका घर और साजो-सामान जलकर राख हो गया। उसने डरते-डरते राजा से कहा, “अब तो हमारा सारा कुछ जल गया। कुछ भी नहीं बचा। कम-से-कम आप मुझे इसकी बानी (राख) दे दीजिए।” राजा ने कह दिया कि जितना बानी लेना है ले जाओ।

बितनवाँ ने बानी को बोरे में भर लिया और उसे बेचने के लिए निकल पड़ा। जाते-जाते रास्ते में उसे एक व्यापारी मिला। वह व्यापारी हीरे-जवाहरात और अन्य क़ीमती चीज़ें बेचता था। उसने बितनवाँ से पूछा, “तुम क्या बेचते हो?” उसने कहा, “मैं भी हीरे-जवाहरात बेचता हूँ।” व्यापारी ने पूछा, “तुम किस ओर जा रहे हो?” उसने कहा, “स्टेशन की ओर।” वह व्यापारी भी उसके साथ हो लिया। चलते-चलते रात हो गई। दोनों एक गाँव में रुक गए। आधी रात में ही व्यापारी उसके बानी वाली बोरी लेकर भाग गया। सवेरा होते ही जब उसकी आँख खुली तो वह देखता क्या है कि वहाँ व्यापारी नहीं है और उसकी बोरी भी ग़ायब है। उसे यह सब समझते देर नहीं लगी और वह उस व्यापारी का सामान लेकर अपने घर की ओर चल दिया। घर पहुँचकर उसने अपनी माँ से कहा, “ले मइया, हीरे-जवाहरात।” देखते ही देखते उसका घर सामान से भर गया।

राजा तक इस बात की ख़बर पहुँची और वह यह जानकर चकित रह गया कि आख़िरकार बितनवाँ के पास इतना धन आया कहाँ से? उसने बितनवाँ को बुलाया और बोरी में बंद कर नदी में फेंकवा दिया। रोज एक हाथी नदी में पानी पीने जाया करता था। उस दिन भी हाथी नदी में पानी पीने गया। हाथी का पाँव बोरी पर पड़ते ही बोरी फट गई। बितनवाँ उससे बाहर निकल गया और उसी हाथी पर चढ़कर घर की ओर चला रहा था। राजा ने उसे देख लिया। उसके आश्चर्य की सीमा रही। राजा ने बितनवाँ से कहा, “मुझे भी बोरी में बंद कर नदी में फेंक दो।” बस फिर क्या था। उसने राजा को बोरी में ख़ूब कसकर बाँधा और नदी में फेंक दिया। हाथी नदी में पानी पीने गया और राजा की बोरी उसके पाँव के नीचे दब गई। इससे राजा का पेट फट गया और राजा का तत्काल स्वर्गवास हो गया। क़िस्सा गया वन में—समझो अपने मन में।

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 7)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2019

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