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पत्नी जिसे पिटना मंज़ूर नहीं

patni jise pitna manzur nahin

कश्मीर घाटी में एक अमीर सौदागर रहता था। उसका बेटा निरा मूर्ख और नासमझ था। सौदागर ने उसे पढ़ाने के लिए रियासत के बेहतरीन शिक्षक लगाए, पर वही ढाक के तीन पात! वह इतना आलसी, लापरवाह और मोटी बुद्धि का था कि किसी भी चीज़ का उस पर कोई असर नहीं होता था। वह दिन भर पलंग तोड़ता रहता था। पिता दिनोंदिन निराश होता चला गया और आख़िर उसका तिरस्कार करने लगा। हाँ, माँ ज़रूर बेटे की तरफ़दारी करती थी।

बेटा ब्याह के लायक हुआ तो माँ ने पति से अनुरोध किया कि वह उसके लिए दुलहन ढूँढ़े। सौदागर बेटे को लेकर बहुत दुखी था। उसके लिए कुछ भी करने और कहने में उसे शर्म और परेशानी महसूस होती थी। उसने फैसला कर लिया था कि वह उसकी शादी नहीं करेगा। पर पत्नी ने ज़िद पकड़ ली। बेटा अनब्याहा रह गया तो कितनी फ़ज़ीहत होगी! सो उसने दूसरी गली निकाली। कहने लगी कि वह कई दिनों से अपने बेटे में बदलाव देख रही है। इन लक्षणों से उसकी बुद्धिमानी और चतुराई का पता चलता है। इन बातों से पति का क्रोध और भड़कता था। आख़िर एक दिन तंग आकर उसने कहा, “बस, बस, बहुत हो गया। कई दिनों से बक-बक किए जा रही हो। यह बेवक़ूफ़ी की बातें हैं, और कुछ नहीं। माँ अंधी होती है। इस काठ के उल्लू को मैं एक मौक़ा और देता हूँ। उसे ये तीन पैसे दो और कहो कि एक पैसे से वह बाज़ार से अपने लिए कुछ ख़रीद ले, दूसरा पैसा नदी में फेंक दे और तीसरे पैसे से कम से कम ये पाँच चीज़ें लेकर आए—कुछ खाने के लिए, कुछ पीने के लिए, कुछ कुतरने के लिए, कुछ बग़ीचे में बोने के लिए और गाय के खाने के लिए।”

पत्नी ने पति के कहे अनुसार बेटे को एक-एक पैसे के तीन तांबे के सिक्के दे दिए। बेटा सिक्के लेकर घर से चल पड़ा।

वह बाज़ार गया और एक पैसे की खाने की कोई चीज़ ख़रीदी और खा गया। इसमें कुछ मुश्किल नहीं थी। फिर वह नदी पर गया और एक सिक्का पानी में फेंकने को ही था कि एकाएक उसके दिमाग़ में इसका बेतुकापन कौंधा। वह रुक गया।

“इससे क्या फ़ायदा होगा भला!” वह चिल्लाया। “अगर मैं एक पैसा नदी में फेंक देता हूँ तो मेरे पास एक ही पैसा बचेगा। एक पैसे से क्या मैं खाने की, पीने की और माँ ने जो कहा था वे सब चीज़ें ख़रीद सकूँगा? लेकिन अगर मैं एक पैसा नहीं फेंकता हूँ तो यह हुक्मउदूली होगी।”

यों वह अपने-आपसे बातें कर रहा था कि एक लुहार की बेटी वहाँ आई। उसकी परेशानी को ताड़कर लुहार की बेटी ने पूछा कि बात क्या है? सौदागर के बेटे ने उसे वह सब बताया जो माँ ने उससे करने को कहा था और यह भी कि उसे मानना बेवक़ूफ़ी के सिवा कुछ नहीं। लेकिन यह माँ का कहा टाल भी नहीं सकता। समझ नहीं पड़ता उसे क्या करना चाहिए।

लुहार की बेटी ने कहा, “मैं बताती हूँ। बाज़ार से एक पैसे का तरबूज़ ख़रीद लो और दूसरा पैसा अपनी जेब में रख लो। उसे नदी में फेंकने की ज़रूरत नहीं। तरबूज़ में वे पाँचों चीज़ें हैं जो तुम्हें चाहिए। तरबूज़ ले जाकर अपनी माँ को दे दो। वह बहुत ख़ुश होगी।”

उसने वैसा ही किया।

बेटे की होशियारी देखकर माँ की छाती चौड़ी हो गई। पति के घर आते ही वह चहकी, “देखा अपने बेटे का कमाल! अब बोलो! मैं कहती थी कि अपना बेटा लाखों में एक है!”

तरबूज़ को देखकर पिता को ताज्जुब हुआ। बोला, “मुझे यकीन नहीं होता कि यह इसने ख़ुद किया है। इसमें इतनी समझ होती तो बात ही क्या थी! इसे ज़रूर किसी ने सलाह दी है।” फिर वह बेटे से मुखातिब हुआ, “तुम्हें तरबूज़ ख़रीदने के लिए किसने कहा?”

लड़के ने जवाब दिया, “एक लुहार की बेटी ने।”

“देखा तुमने! मैं जानता था कि यह इस गधे के बस का नहीं। लेकिन एक बात है...इसकी शादी कर देते हैं। अगर तुम्हारी और इसकी मंशा हो तो लुहार की बेटी के साथ इसकी शादी हो सकती है। उसने हमारे बेटे में कुछ दिलचस्पी ली है और वह बहुत अक़्लमंद लगती है।”

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं! इससे अच्छा और क्या होगा!” पत्नी ने शीघ्रता से कहा।

सौदागर लुहार की झोंपड़ी पर गया। लुहार की बेटी बाहर आई। सौदागर ने उससे पूछा, “तुम्हारे अब्बा और माँ कहाँ हैं? मुझे उनसे मिलना है।”

लुहार की बेटी ने कहा, “अब्बा कौड़ी देकर माणिक लेने गए हैं और माँ कुछ लफ़्ज़ बेचने गई है। आप बैठिए, वे आते ही होंगे।”

“अच्छी बात है, मैं इंतज़ार करता हूँ।” लड़की के जवाब से उलझन में पड़े सौदागर ने पूछा, “तुमने क्या कहा, तुम्हारे अब्बा और माँ कहाँ गए हैं?”

“अब्बा कौड़ी के बदले माणिक लेने गए हैं, यानी वे दीए के लिए तेल लेने गए हैं। और माँ कुछ लफ़्ज़ बेचने गई है, यानी वह किसी के लिए रिश्ते की बात करने गई है।”

लड़की की चतुराई से वह बहुत प्रभावित हुआ।

थोड़ी देर में लुहार और लुहारिन लौट आए। इतने बड़े सौदागर को अपने घर आया देखकर उन्हें बहुत हैरानी हुई। उन्होंने उसे अदब के साथ सलाम किया और कहा, “आपके क़दमों से यह झोंपड़ी निहाल हो गई। कहिए कैसे तकलीफ़ की?”

सौदागर ने कहा कि वह अपने बेटे के लिए उसकी बेटी का हाथ माँगने आया है। उनके अचरज की सीमा रही। उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी उसकी बात क़बूल कर ली। निकाह का दिन तय हो गया।

हवा के साथ यह ख़बर पूरे शहर में फैल गई। इतने बड़े सौदागर और एक नाकुछ लुहार के बीच रिश्तेदारी की बात किसी के गले नहीं उतर रही थी। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कुछ निठल्ले धींगड़े सौदागर के बेटे के पास गए और लुहार की बेटी के बारे में उसके कान भर दिए। उन्होंने उसे पट्टी पढ़ाई कि वह लुहार को धमकी दे कि वह इस रिश्ते से बाज आए, नहीं तो वह निकाह के बाद उसकी बेटी को रोज़ सात जूते मारेगा। उन्होंने सोचा इससे डरकर लुहार रिश्ता तोड़ देगा। धींगड़ों ने आगे कहा, “अगर वह नहीं डरता है और निकाह होता ही है तो फिर भी बीवी के साथ तुम यही सलूक करना। इससे वह हमेशा तुम्हारा हुक्म मानेगी। यह भी तुम्हारे लिए अच्छा ही होगा।”

सौदागर का मूर्ख बेटा उनकी बातों में गया। उसे यह तरकीब लाजवाब लगी। वह सीधा लुहार के पास गया और जो उसे सिखाया गया था वह तोते की तरह उगल दिया।

सुनकर लुहार के माथे में बल पड़ गए। उसने बेटी को बुलाया और सौदागर के बेटे ने जो कहा उसे कह सुनाया। उसने बेटी से कहा कि ऐसे आदमी से कोई नाता रखना ठीक नहीं। “जो आदमी तुममें और घोड़ों के चोर में फ़र्क़ नहीं समझता उससे शादी करने से तो अच्छा है कि शादी कभी हो ही नहीं,” लुहार ने कहा।

बेटी ने अब्बा को तसल्ली दी, “आप बिलकुल चिंता करें। लगता है कुछ लफ़ंगों ने उसे ऐसा कहने के लिए उकसाया है। मैं ऐसा कुछ नहीं होने दूँगी। कहने और करने में फ़र्क़ होता है। आप बेफ़िक़्र रहें, जो उसने कहा है वह कभी नहीं होगा।”

नियत दिन निकाह हो गया। पहली रात को दूसरे पहर के बाद दूल्हा उठा। यह सोचकर कि दुलहन सो रही है उसने जूता उठाया और उसे मारने को ही था दुलहन ने आँखें खोल दीं। बोली, “रुक जाओ! शादी के दिन कहीं झगड़ा करते हैं? इससे बुरा सगुन होता है। मुझे पीटना ही चाहते हो तो कल पीट लेना। कम से कम आज तो झगड़ा मत करो!” दूल्हे को बात जँची। पर अगले दिन उसने दुलहन को मारने के लिए जूता उठाया तो वह कहने लगी, “क्या तुम्हें मालूम नहीं कि शादी के पहले हफ्ते मियां-बीवी में तकरार होना बुरा सगुन है? तुम ख़ुद समझदार हो। मेरा कहा मानो, सात दिन ऐसा मत करो। मुझे पीटना चाहते हो तो आठवें दिन जितना जी चाहे पीट लेना।” पति मान गया और जूता फेंक दिया। मुस्लिम रिवाज़ के मुताबिक़ सातवें रोज़ दुलहन मायके चली गई।

पति के दोस्तों ने कहा, “ओह! तो आख़िर जीत उसी की हुई! तुम घोंचू के घोंचू ही रहे। हम जानते थे कि ऐसा ही होगा।”

इस बीच दूल्हे की माँ को एक उपाय सूझा। उसे लगा कि बेटे को पाँवों पर खड़े रहने का यह सही वक़्त है। सो उसने पति से कहा, “उसे तिजारत के लिए कहीं बाहर भेजो। सफर पर जाएगा तो कुछ सीखेगा ही।”

सौदागर ने कहा, “कभी नहीं। उसे पैसा देना पानी में फेंकना है। कुछ ही दिनों में वह सब लुटा देगा।”

पत्नी ने कहा, “कोई बात नहीं। उसे कुछ पैसा दो और देश-विदेश में घूमने दो। अगर उसने पैसा कमाया तो वह पैसे की कदर समझेगा। और अगर सबकुछ गँवाकर वह भिखारी हो गया तो उस सूरत में भी आइंदा पैसा मिलने पर वह उसकी कदर करेगा। दोनों सूरत में उसे फ़ायदा होगा। ऐसे तजुरबे के बिना वह कभी कुछ नहीं कर सकेगा।”

पति उसकी बात का क़ायल हो गया। सो उसने बेटे को कुछ धन, माल और नौकर दिए और होशियारी बरतने की हिदायत के साथ रवाना कर दिया। दूसरे मुल्क में पहुँचने के कुछ ही समय बाद सौदागर के बेटे का कारवाँ एक विशाल बग़ीचे के पास से गुज़रा। बग़ीचा ऊँची दीवार से घिरा हुआ था। सौदागर के बेटे को जिज्ञासा हुई कि यह कैसी जगह है और इसके अंदर क्या है। उसने नौकरों को चारदीवारी के भीतर जाने और पता करने को कहा। नौकरों ने वापस आकर बताया कि भीतर निहायत ही ख़ूबसूरत बग़ीचा है। बग़ीचे के बीच में बहुत बड़ा महल है। सौदागर का बेटा अपने को रोक सका। महल में घुसने पर एक सुंदर औरत ने उसकी अगवानी की और उसे नड़ खेलने का न्यौता दिया। वह औरत शातिर जुआरी थी। सामने वाले को हराने के कई गुर वह जानती थी। उसका ख़ास गुर यह था—खेलते समय वह एक बिल्ली अपने पास रखती थी। वह बिल्ली उसकी सिखाई हुई थी। मालकिन का इशारा पाते ही वह पूँछ से दीया बुझा देती थी। खेल उसके हाथ से निकलने लगता तो वह बिल्ली को इशारा कर देती। इस और ऐसे ही दूसरे तरीक़ों से उसने बेशुमार दौलत इकट्ठी कर ली थी। यही अचूक गुर उसने सौदागर के बेटे पर आजमाया। एक के बाद एक वह सब गंवा बैठा—धन, माल, नौकर और आख़िर में ख़ुद को भी। उसका सब कुछ छिन गया और वह वहाँ क़ैदी हो गया। क़ैद में उसके साथ बहुत बुरा बरताव किया जाता था। अकसर हताशा में वह हाथ उठाकर दुआ करता कि ख़ुदा उसे इस दुनिया से उठा ले!

एक दिन उसने एक आदमी को क़ैदखाने के दरवाज़े के पास से गुज़रते देखा। उसने उसे रोका और उसका गाँव-धाम पूछा। उसे पता चला कि वह उसी के शहर का रहने वाला है।

सौदागर के बेटे ने कहा, “भई वाह! तुम भी ख़ूब मिले! मेरा एक काम करोगे? तुम देख ही रहे हो कि मैं यहाँ क़ैद में हूँ और तब तक बाहर नहीं सकता जब तक कर्ज़ नहीं चुका देता। क्या तुम मेरे दो ख़त ले जाओगे, एक अब्बाजान के लिए और एक मेरी बीवी के लिए? ले जाओगे न? इसके लिए मैं ज़िंदगी भर तुम्हारा गुन मानूँगा। बाहर आने पर तुम्हें इनाम भी दूँगा।”

उस आदमी ने सर हिलाकर हामी भरी और जाते वक़्त चिट्ठियाँ ले गया।

एक चिट्ठी में उसने पिता को लिखा कि उस पर क्या बीती और वह किस हाल में है। पत्नी वाली चिट्ठी में वह असलियत छुपा गया। उसमें उसने लिखा कि कैसे उसने ढेरों दौलत कमाई। यह भी कि वह जल्दी ही लौटेगा और उसे जूते मारेगा जैसा कि उसने शादी से पहले कहा था।

चिट्ठियाँ ले जाने वाला निरा अँगूठा छाप था। उसने पिता की चिट्ठी बीवी को दे दी और बीवी की चिट्ठी पिता को। यह जानकर कि बेटा ख़ैरियत से है और बहुत दौलत कमाई है सौदागर बहुत ख़ुश हुआ पर वह यह नहीं समझ पाया कि ख़त उसके नाम होकर बहू के नाम क्यों है। और उसने बहू को पीटने की धमकी क्यों दी है। उधर बहू को चिट्ठी पढ़कर बहुत धक्का लगा। पर यह बात उसकी समझ में नहीं आई कि चिट्ठी पर उसके नाम की बजाए अब्बाजान का नाम क्यों लिखा है। घबराई हुई वह ससुर के पास गई। चिट्ठियों का मिलान करने पर वे उलझन में पड़ गए।

बहू दिलेर थी। उसने फैसला किया कि वह पति को देखने जाएगी और उसे क़ैद से छुड़ाने की कोशिश करेगी। बूढ़े सौदागर ने उसे धन देकर विदा किया!

मर्दाना लिबास पहने बहू सीधे धोखेबाज औरत के ठिकाने पर पहुँची। रास्ते में एक पल भी उसने आराम नहीं किया। उसने संदेशा भेजा कि वह धनी सेठ का बेटा है। जैसी कि संभावना थी उसे जल्दी ही नड़ खेलने का निमंत्रण मिला। शाम को बाज़ी जमना तय हुआ। इस बीच सेठ के बेटे ने ठगनी के नौकर-चाकरों को घूस देकर सारी बातें जान लीं। उन्होंने उसे बताया कि सामने वाले को हराने के लिए उनकी मालकिन क्या हथकंडे अपनाती हैं। उनमें अव्वल है बिल्ली वाला हथकंडा। सो शाम को नड़ खेलने के लिए जाते समय उसने आस्तीन की तह में एक चूहिया छुपा ली।

खेल शुरू हुआ। सेठ का बेटा जीतता चला गया। मक्कार जुआरन को हारना गवारा था। उसने बिल्ली को इशारा किया। बिल्ली को दीए की तरफ़ बढ़ते देख सेठ के बेटे ने चूहिया को छोड़ दिया। बिल्ली चूहिया के पीछे भागी। कमरे का सारा सामान अस्त-व्यस्त हो गया।

सेठ के बेटे ने पूछा, “क्या हम खेल चालू रखें?” अब कोई बाधा नहीं थी। वह दाँव वह जीत गया। और फिर दूसरा और तीसरा और चौथा। सेठ का बेटा बनी बहू जीतती चली गई। अपने मूर्ख पति का सारा माल उसने वापस ले लिया। और तो और, वह महल, वहाँ के तमाम नौकर-चाकर और वह दुष्ट और सब कुछ उसने जीत लिया।

बहू ने वहाँ का सारा माल-मत्ता बड़े-बड़े संदूक़ों में भरवाया और उन्हें घोड़ों पर रखवाया। फिर वह क़ैदख़ाने में गई और तमाम क़ैदियों को आज़ाद कर दिया। दूसरे क़ैदियों के साथ उसका पति भी उसका शुक्रिया अदा करने आया, पर मर्दाना लिबास में अप पत्नी को वह पहचान सका। बहू ने उससे पूछा कि क्या वह उनका सरदार बनेगा। उसने ख़ुशी-ख़ुशी हाँ कर दी। बहू ने उसे अच्छे कपड़े पहनने को दिए। जब उसने कपड़े बदल लिए तो बहू ने उसके फटे-पुराने कपड़े मँगवाए और संदूक़ची में रख दिए। सारी तैयारियाँ हो गईं। वे चल पड़े। दुष्ट ठगनी को भी उसने पीछे नहीं छोड़ा।

अपनी रियासत में घुसते ही सेठ का बेटा बनी बहू ने कारवाँ के सरदार से कहा, “मुझे यहाँ ज़रूरी काम से रुकना होगा। तुम सीधे शहर जाओ और सारा माल संभालकर अपने घर रखो। मैं तुम्हारे अब्बा को जानता हूँ। मुझे तुम पर भरोसा है। अगर मैं बीस दिन में वापस नहीं आया तो सारा माल तुम्हारा।”

दूसरे रास्ते से वह सीधे अपने पीहर गई। कारवाँ का मुखिया तमाम नौकरों, माल-असबाब और धूर्त्त जुआरन के साथ अपने घर पहुँचा।

पीहर में बहू ने पिता को सारी बात बताई और कहा कि वे इसके बारे में किसी से कुछ कहें। फिर वह जनाना पहनावे में ससुराल गई। उस पर नज़र पड़ते ही पति ने कहा, “तुम अब तक कहाँ थी? तुम्हें मालूम है तुम्हें पीटने के लिए मैं कब से इंतज़ार कर रहा हूँ?” यह कहकर वह अपना जूता उतारने लगा।

उसके अब्बा और माँ ने कहा, “ओह, बंद करो अपनी बकवास! इतने दिनों बाद तुम घर आए हो, कम से कम आज तो नीचता से बाज आओ!”

बहू ने कहा, “तो यह मिजाज़ है! मैंने सोचा था इतनी मुसीबतों के बाद तुम्हारा ठस दिमाग़ कुछ ठीक हो गया होगा। मगर नहीं, तुम बेवकूफ़ के बेवक़ूफ़ रहे। वह संदूक़ची मुझे दो! हाँ, वह संदूक़ची! ये गंदे कपड़े किसके हैं? पहचाना इन्हें? कुछ याद आया कि क़ैदख़ाने के पहरेदार तुम्हारे साथ कैसा सलूक करते थे? तुम्हारी कैसी पिटाई करते थे? तुम्हें किस नाम से पुकारते थे? कितना कम और घटिया खाना तुम खाते थे? तुम्हारा चेहरा पीला क्यों पड़ गया? हाँ, मैं वही सेठ का बेटा हूँ जिसने तुम्हें आज़ाद कराया। जो ख़त तुमने अब्बाजान को लिखा वह तुम्हारा आदमी मुझे दे गया। उससे मुझे तुम्हारे हालात पता चले और मैं साहूकार के भेष में वहाँ आई, उस ठगनी के साथ नड़ खेला और वह सबकुछ वापस हासिल किया जो तुम हार गए थे। साथ ही मैंने वह औरत और उसकी सारी जायदाद भी जीत ली। यह रही वह औरत। पूछो इससे, यह मुझे भूली नहीं होगी।”

“भूलूँगी कैस!” ठगनी ने कहा।

पति से कोई जवाब देते बना। सास ने उसे दुआ दी। ससुर बहुत देर से चुप था। वह एकाएक बेटे पर बरस पड़ा। उसके ग़ुस्से और हताशा की सीमा थी। फिर वही पत्नी की ओर मुड़ा, “अब तो पता चल गया कि तुम्हारा लाडला अक्ल के पीछे लट्ठ लिए घूमता है? यह तमाम माल-असबाब और गहने बहू के हैं, वह इन्हें अपने पास ही रखे। तुम्हारा लाडला ऐसी बहू के लायक नहीं है।”

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 70)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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