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एक आदमी की पुण्याई

ek adami ki punyai

किसी गाँव में सिर्फ़ ब्राह्मण रहते थे। उनका जीवन धर्मनिष्ठ और सादा था। वे सुबह-शाम नियमित रूप से पूजा करते थे। चारों वेद उन्हें कंठस्थ थे। वैदिक कर्मकांड और सिद्धांतों का वे अक्षरशः पालन करते थे। सभी वैदिक ब्राह्मणों की तरह गाँव की हर कुटिया के मध्य में हवनकुंड था जिसकी पवित्र अग्नि को वे कभी बुझने नहीं देते थे।

गाँव के ऐसे ही एक परिवार में एक रात छोटी पुत्रवधू को लघुशंका लगी। अँधेरे में उसे अकेले बाहर जाते हुए डर लग रहा था। सो उसने कुटिया के बीच में बने हवनकुंड के पवित्र अँगारों पर पेशाब कर दिया। सुबह घरवालों को अँगारों के बीच शुद्ध सोने की सिल्ली मिली। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। घर का बूढ़ा मुखिया बहुत चतुर था। उसने तुरंत कहा, “अवश्य ही किसी ने कुछ गड़बड़ की है। नहीं तो ब्राह्मण के यज्ञकुंड में सोने की सिल्ली कैसे आती!” उसने पूरे परिवार को कतार में खड़ा किया और एक-एक से पूछताछ करने लगा। आख़िर छोटी पुत्रवधू को बताना पड़ा कि रात को उसने क्या किया। मुखिया ने उसे और सब घरवालों को फिर ऐसी ग़लती करने की चेतावनी दी। साथ ही उसने आदेश दिया कि रात को छोटी बहू को बाहर जाना हो तो कोई उसके साथ जाए।

इस चमत्कार की बात पूरे गाँव में फैल गई। पहले कभी-कभार और फिर अकसर गाँव के दूसरे यज्ञकुंडों में भी सोने की सिल्लियाँ मिलने लगीं। बहुत से लोग अमीर हो गए। घर-घर में पक्के मकान बन गए। सूती कपड़ों का स्थान रेशम और मलमल ने ले लिया। बेटियों को ढेरों दहेज दिया जाने लगा। देखते-देखते गाँव का रंग-ढंग बदल गया।

पर एक परिवार ग़रीब ही बना रहा। यह परिवार गाँव की सीमा पर बनी कुटिया में रहता था। पूरे गाँव में बस यही एक कुटिया रह गई थी। घरवाली रोज़ पति से तकरार करती थी, “तुम मुझे हवनकुंड तक क्यों नहीं जाने देते? कम से कम एक बार तो जाने दो! फिर हम ग़रीब नहीं रहेंगे। रोटी-कपड़े का झंझट तो बचेगा। एक बार तो जाने दो, सिर्फ़ एक बार! सोने की एक सिल्ली हमारे सालों तक काफ़ी होगी।” उसने पति को बहुत तंग किया। ख़ुशामद की। फुसलाया। अपने सारे दाँव-पेंच अजमाए। पर उससे निराशा ही हाथ लगी। अनीर बनना कितना आसान था, पर हठी पति ने उसे इसकी अनुमति नहीं दी। एक दिन पत्नी ने ज़्यादा दिक किया तो वह फट पड़ा, “जानती हो यह ब्राह्मणों का गाँव अब तक क्यों बचा हुआ है?”

क्रुद्ध पत्नी ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा, “क्यों? क्या इसलिए कि मुझे यज्ञकुंड में मूतने नहीं देते और तुम हमें ग़रीब ही रखना चाहते हो जबकि सब पैसे वाले हो गए हैं? यही कहना चाहते हो तुम?”

“हाँ, बिलकुल यही। हमारे कारण ही यह गाँव बचा हुआ है। यदि हम भी वही करने लगें जो सब कर रहे हैं या यह गाँव छोड़ दें तो यह गाँव उजड़ जाएगा।”

पत्नी को यह निरी सनक लगीं। “गाँव के धनवान तभी तक जीवित हैं जब तक हम दरिद्र बने रहें? ऊँह! पता नहीं तुम अपने को क्या समझते हो!”

पति ने कहा, “मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि जो मैंने कहा वह सच है। सामान बाँधो। हम यहाँ नहीं रहेंगे। फिर तुम देखना क्या होता है।”

उन्होंने सारा सामान बाँधा और दूसरे गाँव चले गए।

एक हफ़्ता बीतते बीतते गाँव वाले आपस में झगड़ने लगे। हरेक दूसरे पर आरोप लगाने लगा कि वह उसकी ज़मीन और मकान हड़पना चाहता है। ज़्यादा लालची लोगों ने अपनी पत्नियों, बेटियों और बहुओं को आदेश दिया कि वे यज्ञकुंड में अधिक से अधिक पेशाब करें जब तक कि कुंड की आग बुझने ही लगे। एक दिन किसी घर के लोगों ने लालच और क्रोध से पड़ोसी के घर पर अँगारे फेंके। पड़ोसियों ने बदले में और अधिक अँगारे फेंके। एक घर से दूसरे, दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे घर में आग फैलती चली गई। पूरा गाँव जलकर राख हो गया। एक घर भी बाक़ी नहीं बचा।

यह समाचार मिलने पर गाँव छोड़ने वाले ब्राह्मण ने पत्नी से कहा, “अब तो तुम्हें मेरी बात पर भरोसा हुआ? एक आदमी की पुण्याई केवल उसकी, बल्कि साथ वालों की भी रक्षा करती है।”

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 22)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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