चतुर लोमड़ी
एक गाँव में एक बूढ़ा और बुढ़िया रहते थे। बूढ़े-बुढ़िया की कोई संतान नहीं थी। वे दोनों मज़दूरी कर किसी तरह अपना जीवन गुज़ार रहे थे। जंगल के किनारे उनकी थोड़ी-सी खेती थी। एक दिन बूढ़ा मुर्ग़े की बांग के साथ जाग गया। बुढ़िया से बोला,आज तुम भोजन खेत में ही लाना। ऐसा कह वह अपने हल-बैल लेकर चला गया। खेत में पहुँचा और हल चलाने के बाद बुढ़िया की राह देखने लगा।
बुढ़िया थोड़ी देर में भोजन लेकर खेत की ओर निकल पड़ी। जंगली रास्ता था। उसी रास्ते में एक लोमड़ी रहती थी। बुढ़िया को आते देख कर लोमड़ी बुढ़िया के पास आई और बोली,ऐ बुढ़िया! अपना खाने-पीने का सारा सामान नीचे उतार और मेरी पूँछ पकड़।
बुढ़िया क्या करती। भोजन सिर पर से उतार दिया और लोमड़ी की पूँछ पकड़ ली। लोमड़ी ने सारा भोजन स्वयं खा लिया। फिर बोली,माता,अब मेरी पूँछ छोड़ दे।
बुढ़िया ने उसकी पूँछ छोड़ दी और खाली टोकरी लेकर गई खेत में बूढ़े के पास। वहाँ पहुँच कर सारा हाल बूढ़े से कह सुनाया। लोमड़ी अब रोज़-रोज़ ऐसा ही करने लगी। रोज़-रोज़ ऐसा होते देख बूढ़ा ग़ुस्से से आग बबूला हो गया। लोमड़ी को मारने की तरकीब सोचने लगा। एक दिन वह बुढ़िया से बोला,आज तुम हल चलाने जाना। मैं तुम्हारे लिए भोजन लाऊँगा।
यह सुन कर बूढ़ी तैयार हो गई। दूसरे दिन सवेरे वह हल-बैल लेकर खेत चली गई। बूढ़ा अपनी पत्नी के कपड़े और आभूषण आदि पहन कर टोकरी में भोजन ले खेत की ओर चल पड़ा। लोमड़ी रोज़ की तरह वहीं रास्ते में डेरा डाले बैठी थी। बूढ़ा लोमड़ी के पास पहुँचा लोमड़ी उसे बुढ़िया समझ कर बोली,अरे बुढ़िया! जल्दी टोकरी उतार और मेरी पूँछ पकड़। मुझे बहुत ज़ोरों की भूख लगी है।
बूढ़े ने चुपचाप टोकरी उतार दी और लोमड़ी की पूँछ पकड़ ली। उसने पहले से अपने कपड़ों के भीतर तेज़ धार वाला चाकू छिपा रखा था। जैसे ही लोमड़ी रोज़ की तरह भोजन करने लगी वैसे ही बूढ़े ने धीरे से चाकू निकाल कर लोमड़ी की पूँछ काट दी। लोमड़ी चौंक गई। उसकी समझ में आ गया कि यह बुढ़िया नहीं बल्कि बूढ़ा है। वह वहाँ से भाग गई। उसी दिन से उस लोमड़ी का नाम हुआ 'पूँछ कटी लोमड़ी' वह अब लोमड़ियों की मुखिया बन गई।
एक दिन लोमड़ियों की बैठक हुई। सभी लोमड़ियों के बीच वह लोमड़ी भी बैठी। बैठक में वाद-विवाद शुरु हुआ। सभी लोमड़ियों ने अपनी-अपनी राय रखी। पूँछ कटी लोमड़ी चूँकि मुखिया थी, इसीलिए उसने बीच में कुछ भी बोलना उचित नहीं समझा। किंतु शेष लोमड़ियों को उसका चुप रहना अच्छा न लगा। सभी लोमड़ियाँ बोलीं,दीदी! आप ही सुझाव दीजिए।
यह सुन कर वह लोमड़ी बोली,हम सभी बूढ़े के हल के मूठ में मल लगा देंगे। इससे बूढ़े का हल चलाना बंद हो जाएगा। उसी खेत में एक चुहिया रहती थी। वह चुहिया इन सभी की बातें बड़े ही ध्यान से सुन रही थी। चुहिया तुरंत बूढ़े के पास गई और लोमड़ियों की बातें उसे बता दी। बूढ़ा चुहिया की बात सुन कर तुरंत लोहार के घर गया और तेज धार वाली छुरी बनवाई। फिर रातों-रात उसे हल के मूठ में लगा दिया। सवेरा होने से पहले सारी लोमड़ियाँ बूढ़े के हल के पास गईं और बारी-बारी से अपने कूल्हे हल की मूठ पर रगड़ने लगीं। सबसे पहले एक लोमड़ी गई तो उसे छुरी लगी। कुछ दूर जाकर उसने अपना कूल्हा देखा और बोली,वाह रे मेरे कूल्हे! तूने तो बीड़ा पान खाया है। यह कहती हुई उसने बाकी लोमड़ियों को भी अपना कूल्हा दिखलाया और बोली,देखो,देखो। मेरे कूल्हे ने पान खाया है। देखो इसे,यह कैसा लाल हो गया है।
उसकी बात सुन कर बाकी लोमड़ियाँ भी बीड़ा पान की लालच में हल की मूठ से अपने कूल्हे रगड़ने लगीं। सबसे आख़िर में गई वही पूँछ कटी लोमड़ी। वह थी बड़ी ही घमंडी। उसने वहाँ से जाती हुई सभी लोमड़ियों को ललकारा,अरे! तुम सभी कमज़ोर हो।
बाकी लोमड़ियाँ यह सुन कर रुक गईं और दर्द के मारे वहीं बैठ गईं। तब वह पूँछ कटी लोमड़ी गई और हल की मूठ पर ज़ोर-ज़ोर से अपना कूल्हा रगड़ने लगी। इससे उसके कूल्हे का आधा माँस वहीं कट कर रह गया। तब वह पीड़ा से बिलबिला उठी और पलट कर देखा तो वहाँ छुरी थी। उस दिन से उसने वहाँ जाना छोड़ दिया। बूढ़ा अंततः उस चतुर लोमड़ी को मारने में असफल रहा। कुछ दिनों में बूढ़े और बुढ़िया का देहांत हो गया।
- पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 47)
- संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2013
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