घमंडी शेर
पुराने ज़माने की बात है। गाँव से लगा हुआ एक बहुत बड़ा जंगल था। उस जंगल में एक घमंडी शेर रहा करता था। उस जंगल में रहने वाले सभी जानवर उससे परेशान रहते थे। एक दिन शेर को उस जंगल से भगाने के लिए बैठक बुलायी गई। बैठक का नेतृत्व हाथी कर रहा था। बैठक शुरु हुई तो सभी जानवर अपनी-अपनी तकलीफ़ों का बयान करने लगे। हाथी बोला,साथियों! आप सभी कहीं से एक पिंज़रा ले आओ।
तब कहीं से एक पिंजरे का इंतज़ाम किया गया। उस पिंजरे के भीतर माँस का टुकड़ा रख दिया गया। इसके बाद शेर को भी उस बैठक में बुलाया गया। हाथी के साथ कुछ तगड़े जानवर थे। शेर पुकार सुन कर दहाड़ मारता हुआ उसी रास्ते से आया जिस रास्ते में पिंजरा रखा हुआ था। पिंजरे के पास पहुँचने पर देखा,पिंजरे के भीतर माँस का टुकड़ा रखा हुआ था। यह देख उसके मुँह में पानी भर आया। उसने आव देखा न ताव,छलांग मार कर वह पिंजरे के भीतर जा घुसा। जंगल के बाकी जानवर पास ही झाड़ियों में छिपे बैठे थे। शेर को भीतर पहुँचा देख साँकल खींच दी। शेर अब पिंजरे के भीतर बंद हो गया। उसे पिंजरे के भीतर बंद पड़े दो-तीन दिन बीत गए। माँस का वह छोटा-सा टुकड़ा भला कब तक उसका साथ देता! वह तो उसके एक ही निवाले में ख़त्म हो गया था। अब शेर भूखा-प्यासा वहाँ पड़ा था,भूख-प्यास से तड़पने लगा। इसी बीच एक लकड़बग्घा उधर से गुज़रा। उसे जंगल का माज़रा नहीं मालूम था। उसे देखा शेर ने और बड़ी ही दीनता से बोला,भाई लकड़बग्घे! मैं दो-तीन दिनों से इस पिंजरे के भीतर भूखा-प्यासा पड़ा हुआ हूँ। ज़रा इस पिंजरे का दरवाज़ा खोल दो। मैं तुम्हारा एहसानमंद रहूँगा।
लकड़बग्घा बोला,वह सब तो ठीक है,शेर महाराज! किंतु क्षमा करना, मैं यह दरवाज़ा नहीं खोल सकता। कारण, पिंजरे का दरवाज़ा खुला नहीं कि आप मुझे ही खा जाएँगे।
शेर ने देखा कि लकड़बग्घा तो दरवाज़ा खोलने से रहा। वह निराश हो गया और नाटक करने लगा। रोनी सूरत बना कर उसके हाथ-पाँव जोड़ते हुए बोला,भाई लकड़बग्घे! मुझ पर आई इस विपत्ति से मुझे छुटकारा दिला दो,तुम मुझ पर भरोसा रखो,मैं तुम्हें नहीं खाऊँगा।
उसके बारंबार गिड़गिड़ाने पर लकड़बग्घे का मन पसीज गया। उसने दया दिखाते हुए पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़े का खुलना था कि शेर अपनी औकात पर आ गया। वह लकड़बग्घे को मार कर खाने की जुगत सोचने लगा। लकड़बग्घा को अब अपनी भूल पर पछतावा होने लगा। किंतु अब क्या होता! शेर गुर्राता हुआ बोला,अरे मूर्ख लकड़बग्घे! भला मैं तुम्हें छोड़ सकता हूँ? वह भी तब जब मैं दो-तीन दिनों से भूखा हूँ। नहीं,यह नहीं हो सकता। मैं तो तुम्हें खा ही जाऊँगा।
लकड़बग्घे ने हिम्मत जुटा कर कहा,हे शेर महाराज! तुम तो जंगल के राजा हो। तुम पर जंगल के सारे जानवर विश्वास करते हैं। इसी विश्वास के बल पर मैंने तुम्हें क़ैद से मुक्ति दिलायी और तुम मुझे ही खाने पर तुले हुए हो। यह तो न्याय नहीं है।
शेर ने शरारत पूर्वक कहा,अरे लकड़बग्घे! तू तो मुझसे भी बढ़-चढ़ कर बातें कर रहा है। न्याय-अन्याय की बातें तू सिखाएगा मुझे?
लकड़बग्घे के पास चुप रह जाने के अलावा कोई और चारा ही नहीं था। वह मन-ही-मन सोचने लगा, 'शेर तो अब मुझे खाने ही वाला है।' उसने जीने की आशा ही छोड़ दी। किंतु क्षण भर को उसके मन में कोई विचार आया और वह बोल पड़ा,शेर महाराज! ठीक है,अब तो तुम मुझे खा ही जाओगे किंतु यदि बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।
शेर दहाड़ा,क्या बात है,जल्दी बोलो।
लकड़बग्घे ने कहा,यहाँ तो हम दो ही जन हैं। क्यों न हम किसी अन्य के पास चलें जो हमारा फैसला कर सके।
शेर मन-ही-मन मुस्कराया और बोला,ठीक है। तू जहाँ तेरा जी चाहे ले चल। अंततः फैसला तो मेरे ही पक्ष में होगा।
तब दोनों वहाँ से चले। शेर और लकड़बग्घे ने सारा जंगल छान मारा किंतु एक भी जानवर उन्हें नज़र नहीं आया। कारण,जंगल के बाकी जानवर तो डर के मारे झाड़ियों के पीछे ही छिपे बैठे थे। काफ़ी खोजने पर उन्हें एक बूढ़ी और बीमार लोमड़ी एक झुरमुट में पड़ी मिली। वह दर्द से कराह रही थी। वे दोनों उससे अपनी-अपनी बात कहने लगे। तब लोमड़ी ने कहा, देखो भई! जो कुछ भी हो सच-सच बतलाना। आजकल मैं पूजा-पाठ करने लगी हूँ इसीलिए मुझे झूठ बिल्कुल ही पसंद नहीं है।
यह सुन कर शेर ग़ुस्से से दहाड़ने लगा,अरी मूर्ख लोमड़ी! मैं कैसे झूठ बोल सकता हूँ भला?
लोमड़ी हँसी और बोली,अरे बेटा! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। जवानी में किसी को भी गुस्सा आ ही जाता है। किंतु तो भी मुझे तुम दोनों की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा है। यह घटना कहाँ हुई, कैसे हुई ? यह सब जानना बहुत ज़रूरी है। मुझे तुम लोग घटना-स्थल पर ले चलो और वहीं पर सारी बातें बतलाओ तो फ़ैसला करने में सहूलियत होगी।
शेर तो भूख से तड़प रहा था। उसे लकड़बग्घे को खाने की जल्दी थी। वह तुरंत घटना स्थल तक जाने को तैयार हो गया। तीनों जन चले। घटना स्थल पर पहुँचते ही शेर ने बिना कुछ सोचे-समझे पिंजरे के भीतर छलाँग लगा दी और लोमड़ी से बोला,मैं इस पिंजरे के भीतर इस तरह बैठा हुआ था।
लोमड़ी ने पूछा,तो क्या पिंजरे का दरवाज़ा खुला था?
नहीं शेर ने कहा,अरी ओ मूर्ख लोमड़ी! यदि दरवाज़ा खुला ही होता तो मैं भला लकड़बग्घे से उसे खोलने के लिए क्यों कहता?
अच्छा,अच्छा लोमड़ी बोली,तो किस तरह बंद था दरवाज़ा?
शेर ने फिर कुछ सोचे-समझे बिना दरवाज़ा बंद कर दिया। तभी लोमड़ी ने लकड़बग्घे को इशारे से कहा कि वह दरवाज़े की साँकल लगा दे। लकड़बग्घे ने एक पल की भी देरी किए बिना साँकल लगा दी। फिर लोमड़ी और लकड़बग्घा अपने रास्ते चले गए। शेर उसी पिंजरे के भीतर तड़प-तड़प कर मर गया।
इसीलिए किसी को भी,चाहे वह कितना ही ताकतवर क्यों न हो,अपनी ताक़त का घमंड नहीं करना चाहिए। घमंड करने वाले का परिणाम इसी घमंडी शेर की तरह होता है।
- पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 70)
- संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2013
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