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अक़्ल का सौदागर

aql ka saudagar

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एक ग़रीब अनाथ ब्राह्मण लड़का था। आजीविका के लिए कोई साधन था और ही कोई काम। पर वह चतुर था। बचपन में पिता को देखकर वह कई बातें सीख गया था। एक दिन उसके दिमाग़ में एक अद्भुत विचार आया।

वह शहर गया। वहाँ उसने एक सस्ती-सी दुकान किराए पर ली। दो एक पैसे ख़र्च करके क़लम, स्याही, काग़ज़ वगैरा ख़रीदे और दुकान पर तख़्ती टाँग दी। तख़्ती पर लिखा था—‘अक़्ल बिकाऊ है।’ उस दुकान के इर्द-गिर्द सेठों की बड़ी-बड़ी दुकानें थीं। वे कपड़े, गहने, फल, सब्ज़ियाँ वगैरा रोज़मर्रा की चीज़ों का कारोबार करते थे। ब्राह्मण का बेटा दिनभर गला फाड़ता रहा, “अक़्ल! तरह-तरह की अक़्ल! अक़्ल बिकाऊ है! सही दाम, एक दाम!” सौदा-सुलफ़ के लिए आने वाले लोगों ने सोचा कि वह सनक गया है। उसकी दुकान के आगे तमाशबीनों की भीड़ लग गई। सबने उसकी खिल्ली उड़ाई, पर किसी ने एक छदाम की भी अक़्ल नहीं ख़रीदी। पर ब्राह्मण के बेटे ने धीरज नहीं खोया।

एक दिन किसी धनी सेठ का मूर्ख लड़का उधर से गुज़रा। उसने ब्राह्मण के लड़के को आवाज़ लगाते सुना, “अक़्ल लो अक़्ल! तरह-तरह की अक़्ल! यहाँ अक़्ल बिकती है!” सेठ के बेटे के कुछ पल्ले नहीं पड़ा कि वह क्या बेच रहा है। उसने सोचा कि वह कोई सब्ज़ी या ऐसी चीज़ है जिसे उठाकर ले जाया जा सकता है। सो उसने ब्राह्मण के बेटे से पूछा कि एक सेर का क्या दाम लोगे। ब्राह्मण के बेटे ने कहा, “मैं अक़्ल को तौलकर नहीं, उसकी क़िस्म से बेचता हूँ।” सेठ के बेटे ने एक पैसे का सिक्का निकाला और बोला कि एक पैसे की जो और जितनी अक़्ल आती हो, दे दे! ब्राह्मण के बेटे ने एक काग़ज़ का पुर्जा लिया और उस पर लिखा, “जब दो आदमी झगड़ रहे हों तो वहाँ खड़े होकर उन्हें देखना अक़्लमंदी नहीं है।” और पुर्जा सेठ के बेटे को देते हुए कहा कि वह उसे अपनी पगड़ी में बांध ले।

सेठ का बेटा घर गया और पुर्जा पिता को दिखाते हुए कहा, “मैंने एक पैसे की अक़्ल ख़रीदी है, यह देखिए!” सेठ ने काग़ज़ का टुकड़ा लिया और पढ़ा, “जब दो आदमी झगड़ रहे हों तो वहाँ खड़े होकर उन्हें देखना अक़्लमंदी नहीं है।”

सेठ का पारा चढ़ गया। वह बेटे पर बरस पड़ा, “गधा कहीं का! इस बकवास का एक पैसा! यह तो हर कोई जानता है कि जब दो जने झगड़ रहे हों तो वहाँ खड़ा नहीं रहना चाहिए।” फिर सेठ बाज़ार गया और ब्राह्मण के बेटे की दुकान पर जाकर उसे बुरा-भला कहने लगा, “बदमाश, लुच्चा, तूने मेरे बेटे को ठगा है। वह बेवक़ूफ़ है और तू ठग। सीधे-सीधे पैसा लौटा दे, नहीं तो मैं दरोगा को बुलाता हूँ।”

ब्राह्मण के बेटे ने कहा, “अगर आपको मेरा माल नहीं चाहिए तो वापस कर दो। मेरी सलाह मुझे लौटा दो और अपना पैसा ले जाओ!” सेठ ने काग़ज़ के टुकड़े को उसकी तरफ़ फेंकते हुए कहा, “यह लो, और मेरा पैसा वापस करो!” ब्राह्मण के बेटे ने कहा, “पुर्जा नहीं, मेरी सलाह वापस करो। अगर अपना पैसा वापस चाहिए तो आपको यह लिखकर देना होगा कि आपका बेटा कभी मेरी सलाह पर नहीं चलेगा और जहाँ दो लोग लड़ रहे होंगे वहाँ वह ज़रूर खड़ा रहेगा और लड़ाई देखेगा।” पड़ोसियों और राहगीरों ने ब्राह्मण का पक्ष लिया। सेठ ने तुरंत ब्राह्मण के कहे अनुसार लिखा, उस पर हस्ताक्षर किए और अपना पैसा वापस ले लिया। वह ख़ुश था कि इतनी आसानी से उसने अपने बेटे के मूर्खतापूर्ण सौदे को रद्द कर दिया।

वहाँ के राजा की दो रानियाँ थीं और दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाती थीं। और तो और, उनकी दासियाँ भी एक-दूसरे को शत्रु समझती थीं। अपनी मालकिनों की तरह वे भी झगड़े का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देती थीं। एक दिन दोनों रानियों ने अपनी एक-एक दासी को हाट भेजा। दोनों दासियाँ एक ही दुकान पर गईं और दोनों ने एक ही कद्दू लेना चाहा। दुकान पर एक ही कद्दू था और दोनों उसे अपनी रसोई के लिए ख़रीदना चाहती थीं। वे झगड़ने लगीं। उनकी ज़ुबान और हाथ इतने तेज़ चल रहे थे कि बेचारा दुकानदार भाग छूटा। उधर से गुज़रते हुए सेठ के लड़के ने उन्हें झगड़ते देखा तो उसे अपने पिता और ब्राह्मण के बेटे का करार याद आया और वह उनका झगड़ा देखने के लिए रुक गया।

गुत्थमगुत्था दासियों ने एक-दूसरे के बाल नोच लिए और दनादन लात-घूंसे बरसाने लगीं। एक दासी ने सेठ के बेटे को देखकर कहा, “तुम गवाह हो, इसने मुझे मारा।” दूसरी चिल्लाई, “तुमने अपनी आँखों से देखा है कि किसने किसको मारा। तुम मेरे गवाह हो, इसने मुझे कितना मारा।” फिर उन्हें ध्यान आया कि उन्हें और भी कई काम करने हैं। कहीं उन्हें लौटने में देर हो जाए। सो वे चली गईं।

दासियों ने अपनी-अपनी मालकिनों को ख़ूब मसाला लगाकर झगड़े का हाल सुनाया। रानियों का पित्ता सुलग उठा। उन्होंने राजा से शिकायत की। दोनों रानियों ने सेठ के बेटे को कहलवाया कि उसे उसकी तरफ़ से गवाही देनी है। अगर उसने उसका पक्ष नहीं लिया तो वह उसका सर क़लम करवा देगी। सेठ के बेटे के होश उड़ गए। सेठ को इसका पता चला तो उसके देवता कूच कर गए। आख़िर बेटे ने कहा, “चलो, ब्राह्मण के बेटे से पूछते हैं। वह अक़्ल बेचता है। देखें, वह इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए क्या सलाह देता है!” सो सेठ और उसका लड़का ब्राह्मण के बेटे के पास गए। ब्राह्मणपुत्र ने कहा कि वह सेठ के बेटे को बचा लेगा, पर इसका शुल्क पाँच सौ रूपया होगा। सेठ ने पाँच रूपए दे दिए। ब्राह्मण के बेटे ने कहा, “जब वे तुम्हें बुलाए तो तुम पागल होने का स्वांग करना। ऐसा दिखावा करना जैसे उनकी कोई भी बात तुम्हारी समझ में नहीं रही।”

अगले दिन राजा ने गवाह को तलब दिया। राजा और मंत्री ने उससे कई सवाल पूछे, पर उसने एक का भी जवाब नहीं दिया। उसकी बड़बड़ाहट और आयं-बायं-शायं का एक भी शब्द राजा के पल्ले नहीं पड़ा। झुँझलाकर राजा ने उसे कचहरी से बाहर निकलवा दिया। इससे सेठ का बेटा इतना ख़ुश हुआ कि उसे जो भी मिलता उससे वह ब्राह्मणपुत्र की बुद्धिमानी का बखान करता। शहर में ब्राह्मणपुत्र के कई क़िस्से प्रचलित हो गए।

पर सेठ प्रसन्न नहीं था। उसे लगा कि उसके बेटे को हमेशा पागल का स्वांग करना पड़ेगा। नहीं तो राजा को पता चल जाएगा कि उसके साथ छल किया गया है। तब वह उसके इकलौते बेटे का सर धड़ से अलग करवा देगा। सो वे फिर ब्राह्मणपुत्र के पास सलाह लेने गए। ब्राह्मणपुत्र ने फिर पाँच सौ रूपए शुल्क लिया और कहा, “जब महाराज मौज में हों तो उन्हें सच्ची बात बता दो। इससे उनका मनबहलाव होगा और वे तुम्हें माफ़ कर देंगे। पर यह ध्यान रखना कि उस समय उनका मन प्रसन्न हो।” सेठ के बेटे ने वैसा ही किया। सारी बात सुनकर राजा ख़ूब हँसा और उसे क्षमा कर दिया।

यह क़िस्सा सुनकर राजा ब्राह्मणपुत्र के बारे में और जानने के लिए उत्सुक हो उठा। उसने उसे बुलवाया और पूछा कि क्या उसके पास बेचने के लिए और भी अक़्ल है। ब्राह्मणपुत्र ने कहा, “क्यों नहीं, बहुत है। विशेष कर राजा के लिए तो उसके पास अक़्ल का भंडार है। पर मेरा शुल्क एक लाख रुपया होगा।” राजा ने उसे एक लाख रूपए दे दिए। उसने राजा को एक पुर्जा दिया। उस पर लिखा था, “कुछ भी करने से पहले ख़ूब सोच लेना चाहिए।”

इस सलाह से राजा इतना ख़ुश हुआ कि उसने इसे अपना सूत्र वाक्य बना लिया। उसने इसे अपने तकियों के गिलाफ़ पर कसीदे में बुनवा दिया और प्यालों, तश्तरियों आदि पर ख़ुदवा दिया, ताकि वह इसे कभी भूले नहीं।

कुछ महीने बाद राजा बीमार पड़ गया। मंत्री और एक रानी ने राजा से छुटकारा पाने का षड्यंत्र रचा। वैद्य को घूस देकर उन्होंने उसे अपने साथ मिलाया और उसे राजा को दवाई के बदले ज़हर देने के लिए राजी कर लिया। ‘दवाई’ राजा के सामने लाई गई। राजा सोने का प्याला होठों तक ले गया। तभी उसकी नज़र प्याले पर खुदे शब्दों पर पड़ी, “कुछ भी करने से पहले ख़ूब सोच लेना चाहिए।”

बिना किसी तरह का शक किए इन शब्दों पर मनन करते हुए उसने प्याले को नीचे किया और ‘दवाई’ को देखने लगा। यह देखकर वैद्य घबरा गया। उसका अपराधी मन यह सोचकर काँप गया कि राजा को दवा में मिले ज़हर का पता चल गया है। वह विचारमग्न राजा के पाँवों में गिर पड़ा और क्षमा की याचना करने लगा। राजा स्तब्ध रह गया। पर शीघ्र ही वह संभल गया और पहरेदारों को बुलवा कर वैद्य को कारागार में डलवा दिया। फिर उसने मंत्री और कपटी रानी को बुलवाया और उन्हें प्याले के जहर को पीने के लिए कहा। दोनों ने राजा के पाँव पकड़कर दया की भीख माँगी। राजा ने तत्काल उनके सर कटवा दिए और वैद्य को देशनिकाला दे दिया। ब्राह्मणपुत्र को उसने अपना मंत्री बनाया और उसे धन और पुरस्कारों से लाद दिया।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 265)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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