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निशांध जामाता

nishandh jamata

एक विधवा बुढ़िया के बेटे को रतौंधी थी। माँ ने जैसे-तैसे भले घर की लड़की देखकर उसकी शादी कर दी। बेटे को रतौंधी है यह बात वह छुपा गई। पर ऐसी बात कभी छुपती है भला!

शादी के बाद पहली दीपावली पर उसे ससुराल आने का न्यौता मिला। माँ बेटे के ससुराल जाने को लेकर चिंतित थी। उसने बेटे को हिदायत दी, “होशियार रहना! अँधेरा होने पर तुम्हें कुछ दिखता नहीं। रात को इधर-उधर ज़्यादा घूमना-फिरना मत। सिर्फ़ दिन को यात्रा करना और ससुराल में एक रात ही रुकना।”

बेटा अँधेरा घिरने से पहले-पहले ससुराल पहुँच जाना चाहता था। सो वह भरसक तेज़ चला। लेकिन ससुराल की बस्ती में पहुँचते-पहुँचते झुटपुटा हो गया। उसे माँ का कहा याद आया और बैठने की कोई ठौर ढूँढ़ने लगा। दुर्योग से उसने जो जगह चुनी वह उसके ससुराल का पिछवाड़ा था। वहाँ पर घर का कचरा डाला जाता था। उसके बैठने के कुछ देर बाद उसकी सास टोकरी उठाए हुए आई। वह उसे देख नहीं पाई और ऐन उसके सर के ऊपर दिनभर का कचरा उलट दिया। वह चौंका और हड़बड़ाकर ऊपर देखा। सास स्तब्ध रह गई। अरे, यह तो उसका जामाता है! नए जामाता की तो देवता के समान आवभगत की जाती है। वह यह क्या कर बैठी! वह बुरी तरह घबरा गई। उसने झट साड़ी के पल्ले से अपना मुँह ढका और घर की तरफ़ भागी। तभी उसे अपना दस बरस का बेटा आता दिखा। वह भैंसें लेकर घर रहा था। उसने बेटे से कहा, “बेटे सुन, तेरे जीजाजी आए हैं। पता नहीं क्यों वे पीछे घूरे पर बैठे हैं! हो सकता है वे वहाँ शौच के लिए बैठे हों। मैं उन्हें देख नहीं पाई और उनके सर पर कचरा डाल दिया। वे ग़ुस्से में होंगे। भागकर जा और उन्हें मनाकर घर ले आ। वे तुझे पसंद करते हैं।”

साले को भी नए जीजाजी अच्छे लगते थे। वह चिल्लाते हुए भागा, “जीजाजी, आप कहाँ हैं?” वे उसे वहीं घूरे पर बैठे हुए मिले।

“आप यहाँ क्यों बैठे हैं? आओ, घर चलें!” कहते हुए साले ने उसे हाथ से पकड़कर खींचा। जीजा को रतौंधी तो थी, पर था चतुर। बोला, “मैं यहाँ यों ही नहीं बैठा हूँ। मैं देख रहा था कि तुम्हारे घूरे की कितनी गाड़ी खाद होगी। चारेक एकड़ के लिए तो यह काफ़ी होगी।” फिर उसने अपना हाथ स्नेह से साले के कंधे पर रखा और चल पड़ा। वह दो एक क़दम ही चला होगा कि उसने स्याह धब्बे-से अपनी ओर बढ़ते देखे। वह कूद कर एक तरफ़ हो गया, “हैं, ये क्या हैं?”

साले ने कहा, “ये भैंसें हैं। मैं इन्हें चारागाह से ला रहा हूँ।”

“भई वाह! ये तो ख़ूब मोटी-तगड़ी हैं।” कहते हुए उसने एक भैंस की पूँछ पकड़ ली, ताकि वह उसके पीछे-पीछे चल सके। चलते-चलते भैंस एक हागेवू के पास से निकली। जीजा उसमें जा गिरा। साले ने कहा, “क्या बात है? क्या आपको ठीक से दिखता नहीं?”

“अरे नहीं, दिखता क्यों नहीं, ख़ूब दिखता है। मैं तो तुम्हारे हागेवू की गहराई नाप रहा था। इसमें काफ़ी धान जाता होगा, नहीं? मैं भी अपने यहाँ बनवाने की सोच रहा हूँ। लाओ, अपना हाथ दो! यह हुई अच्छे बच्चों वाली बात!” साले का हाथ पकड़कर वह हागेवू से बाहर गया। बाहर निकलकर वह पास की दीवार को टोहते हुए चलने लगा। साले ने पूछा, “जीजाजी, आप दीवार क्यों टोहते हुए चल रहे हैं? आपकी आँखें तो ठीक हैं?”

“कैसी बात करते हो? यों ही ज़रा तुम्हारी बाहरी दीवार की लंबाई नाप रहा हूँ।” ज्यों ही वह फाटक के अंदर घुसा वहाँ खड़े मेढ़े की उसको ठोकर लग गई। मेढ़े ने उसे ज़ोरदार टक्कर मारी। वह गिर पड़ा। साले ने मेढ़े को भगाया और हाथ पकड़कर जीजाजी को खड़ा किया, “आपने देखा नहीं कि यहाँ मेढ़ा खड़ा है?”

“देखा क्यों नहीं! मैं तो ज़रा प्यार से उसके सर पर हाथ फेरना चाहता था, और देखो शैतान ने क्या किया! तुम लोगों ने उसे अजान आदमियों को मारना ही सिखाया है?”

ब्यालू का समय हो गया था। सब खाने के लिए बैठे। लकड़ी की छोटी चौकियों पर थालियाँ रखी गई। दामाद शादी के बाद पहली बार आया था इसलिए सास स्वयं परोसगारी करने आई। सास ने बिछिया, झाँझर, चूड़ियाँ और कड़े पहन रखे थे। उसके चलने से हर क़दम पर गहने बजते थे। दामाद ने समझा कि मेढ़ा अंदर गया और उस पर फिर प्रहार करेगा। इससे पहले कि वह ठीक से पहचान पाता उसने थाली के नीचे रखी चौकी को पाए से पकड़कर उठाया और उसके सामने गए ‘मेढ़े’ पर भरपूर वार किया। सास चीख़ मारकर रसोई की तरफ़ भागी। सास ने सोचा कि सर पर कचरा डालने से वह नाराज़ है। दूसरों ने समझा कि उसकी पत्नी के खाना नहीं परोसने से उसे ग़ुस्सा गया। फिर उसकी पत्नी आई और खाना परोसने लगी।

ब्यालू के बाद सब सोने चले गए। दामाद-बेटी को छोटे कमरे में सुलाया गया। छोटे साले-सालियाँ बरामदे में सोए। आधी रात के बाद दामाद को पेशाब की हाजत हुई। वह उठा और टटोलते हुए कमरे से बाहर आया। हालाँकि उसने पूरा ध्यान रखा था कि कितने क़दम बाद किधर मुड़ना है, मगर लौटते समय वह चूक गया और अपने कमरे की बजाए सास-ससुर के कमरे में घुस गया। चारपाई को टोहते हुए उसका हाथ सास के पैर से छू गया। सास हड़बड़ाकर उठ बैठी, “कौन है? कौन है?”

दामाद ने कहा, “मैं हूँ, मैं!”

सास ने पूछा, “इस वक़्त यहाँ क्या कर रहे हो?”

अब तक उसे अहसास हो गया था कि वह सास-ससुर के कमरे में गया है। बोला, “कुछ नहीं। मुझे बहुत दुख है कि मैंने आपको चौकी से मारा। मैं आपके पैर छूकर माफ़ी माँगना चाहता था। मुझसे भारी भूल हो गई, मुझे माफ़ कर दें।” सास अप्रतिभ हो गई। संकोच से कहा, “कोई बात नहीं। जाओ, सो जाओ।”

पर उसने सास के पैर नहीं छोड़े, “मुझे माफ़ कर दें, मुझे माफ़ कर दें!”

आवाज़ सुनकर उसकी पत्नी की आँख खुल गई। उसने सोचा, “वे पेशाब के लिए गए होंगे और लौटते समय माँ के कमरे में घुस गए होंगे। अब माफ़ी माँग रहे हैं। पड़ोसी क्या सोचेंगे!”

वह माँ के कमरे में आई और पति से कहा, “चलो, सो जाओ! अब बात सुबह करना। चलो, सो जाओ!” कहकर उसने पति का हाथ पकड़ा और उसे अपने कमरे में ले गई।

सुबह दामाद जल्दी ही उठ गया। कहा कि उसे जाना होगा। वह कई काम छोड़कर आया है। उसने पत्नी और ससुराल वालों से विदा ली और चल पड़ा। उसे ख़ुशी थी कि ससुराल में किसी को शक नहीं हुआ कि उसे रात को बिलकुल नहीं दिखता।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 102)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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