एक बार एक चिड़िया भोजन की तलाश में इधर-उधर भटक रही थी। उसे ज़ोर की भूख लगी थी, पर खाने को कहीं कुछ नहीं मिल रहा था। भटकते-भटकते वह एक ऐसे घर के पास पहुँची जो गाँव के सबसे बाहर था। वहाँ कूड़े का ढेर था। बहुत कोशिश की पर वहाँ भी कुछ नहीं मिला। हाँ, पास के कुएँ के निकट ही पानी जमा था, सो उसने पानी पी लिया और भोजन की तलाश में फुर्र से उड़ गई। उड़ते-उड़ते एक घर की छत पर पहुँची। वहाँ एक बुढ़िया सूखने के लिए छत पर फैलाए बूँट (हरा चना) बटोर कर बोरे में भर रही थी। ग़लती से उससे बूँट का एक दाना छूट गया और चिड़िया ने उसे चोंच में भर लिया और उड़ गई।
उड़ते-उड़ते एक ऐसी जगह पर पहुँची जहाँ उसे बूँट दलने के लिए जांता दिखा। बूँट दलने के लिए जांता में डाल दिया। उसके दो टुकड़े हो गए। लेकिन उसके टुकड़े जांते के लकड़ी के खूँटे में ही अटक गए। चिड़िया के बहुत प्रयास के बाद भी वे नहीं निकले। जांते के खूंटे से बहुत मिन्नत-चिरौरी की पर सब बेकार। अब वह बढ़ई के पास गई और उसे सारी कहानी सुनाकर बोली, “बढ़ई भैया, बढ़ई भैया जांते का खूँटा फारो। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ?”
चिड़िया की यह बात सुनकर बढ़ई ने साफ़ मना कर दिया। उसने कहा, “तुम्हारे सिर्फ़ एक दाल के कारण मैं खूँटा नहीं फाड़ सकता हूँ।”
यह सुनकर चिड़िया बहुत निराश हो गई। उसे कोई और उपाय नहीं सूझा तो वह राजा के पास चली गई। उसने राजा से विनती की, “राजाजी-राजाजी बढ़ई को दंड दो। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ...?”
राजा ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया, “तुम्हारे सिर्फ़ एक दाल के कारण मैं बढ़ई को दंड नहीं दे सकता। तुम जा सकती हो यहाँ से...।”
अब चिड़िया रानी के पास गई। रानी से भी विनती की, “रानीजी-रानीजी राजाजी को समझाओ न। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ?”
रानी ने भी उसे चले जाने को कहा, “भागो-भागो, तुम्हारे सिर्फ़ एक दाल के कारण मैं राजाजी को नहीं समझाने जा सकती हूँ।”
यहाँ भी चिड़िया को निराशा हाथ लगी। अब वह उड़ती-उड़ती एक साँप के पास पहुँची। उसने साँप से भी विनती की, “साँप-साँप रानी डंसो। रानी ना राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ...?”
साँप ने भी उसकी बात नहीं मानी, “चली जाओ, तुम्हारी एक दाल के लिए मैं रानी को नहीं डँसने जाऊँगा।”
यह सुनकर चिड़िया फुर्र से उड़ गई और एक लाठी के पास जा पहुँची। उसने लाठी से सहायता माँगी, “लाठी-लाठी साँप मारो। साँप न रानी डंसे। रानी न राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ...?”
लाठी ने चिड़िया की सहायता से इंकार करते हुए कहा, “यहाँ से भागो नहीं तो तुम्हें एक लाठी दूँगा। तुम्हारे एक दाल के लिए मैं साँप को मारने नहीं जाऊँगा।”
वहाँ से उड़कर वह आग के पास पहुँच गई। उसने आग से भी निवेदन किया, “आग-आग लाठी जारो, लाठी न साँप मारे। साँप न रानी डंसे। रानी न राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ...?”
यह सब सुन आग ने चिड़िया को डराते हुए कहा, “जाओ, नहीं तो आग में झुलस जाओगी। तुम्हारे एक दाल के लिए मैं लाठी को नहीं जलाने जा रही।”
वहाँ से उड़कर चिड़िया समंदर के पास जा पहुँची। समंदर से भी उसने फ़रियाद की, “समंदर समंदर आग बुझाओ। आग न लाठी जारे। लाठी न साँप मारे। साँप न रानी डंसे। रानी न राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ...?”
समंदर ने भी बाक़ी सब लोगों की तरह उसकी मदद नहीं की। उसने बड़ी विनम्रता से चिड़िया को समझाया, “तुम्हारे सिर्फ़ एक दाल के लिए मैं इतना बड़ा फ़ैसला नहीं ले सकता। मैं आग को नहीं बुझाने जाऊँगा।”
चिड़िया जानती थी कि अब समंदर को इंद्र का हाथी ही सोख सकता है। उसने हाथी से फ़रियाद की, “हाथी-हाथी, समंदर न आग बुझावे, आग न लाठी जारे। लाठी न साँप मारे। साँप न रानी डंसे। रानी न राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ?”
उसे यहाँ भी निराशा हाथ लगी। हाथी ने सपाट शब्दों में जवाब दे दिया, “मैं समंदर नहीं सोखूँगा, तुम्हें जहाँ जाना है, चली जाओ...।”
अब चिड़िया उड़ते-उड़ते एक रस्सी के पास पहुँची। रस्सी से भी उसने सहायता की भीख माँगी, “रस्सी-रस्सी हाथी बाँधो। हाथी न समंदर सोखे। समंदर न आग बुझावे, आग न लाठी जारे, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डंसे। रानी न राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ?”
रस्सी ने भी चिड़िया की प्रार्थना ठुकराते हुए कहा, “अब मुझे इतनी भी फ़ुर्सत नहीं कि मैं तुम्हारे एक दाल के लिए हाथी को बाँधने जाऊँ।”
वहाँ से चिड़िया उड़कर एक चूहे के पास पहुँची। वह चूहा अपने बिल से निकल ही रहा था। उसने चूहे से भी चिरौरी की, “चूहा-चूहा रस्सी काटो। रस्सी न हाथी बाँधे। हाथी न समंदर सुखावे। समंदर न आग बुझावे। आग न लाठी जारे। लाठी न साँप मारे। साँप न रानी डँसे। रानी न राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ...?”
लेकिन चूहे ने उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उसने उसे टरकाते हुए कहा, “तुम्हारे सिर्फ़ एक दाल के लिए मैं रस्सी काटने नहीं जाऊँगा। इतनी छोटी-सी तो बात है। मुझे क्यों परेशान कर रही हो।”
अब चिड़िया उड़कर एक बिल्ली के पास पहुँची। जाड़े के मौसम में बिल्ली छत पर बैठकर धूप सेंक रही थी। चिड़िया ने अपना सारा दुखड़ा विनती भरे शब्दों में सुना दिया, “बिल्ली बिल्ली, चूहा को पकड़ो। चूहा न रस्सी काटे। रस्सी न हाथी बाँधे। हाथी न समंदर सुखावे। समंदर न आग बुझावे। आग न लाठी जारे। लाठी न साँप मारे। साँप न रानी डंसे। रानी न राजा बुझावे। राजा न बढ़ई दंडे। बढ़ई न खूँटा फारे। खूँटा में मोर दाल है। क्या खाऊँ, क्या पिऊँ, क्या लेके परदेश जाऊँ...?”
बिल्ली को उसकी परेशानी पर दया आ गई। चिड़िया की विनती उसने स्वीकार कर ली और तैयार हो गई, “चलो देखते हैं चूहा कहाँ है?”
यह सुन चिड़िया बहुत ख़ुश हुई और बिल्ली के साथ चल पड़ी। अब बिल्ली की बौखलाहट पर नजर पड़ते ही चूहा तैयार हो गया, “हमरा के धरे-पकड़े न कोई, हम रस्सी काटब लोई...।”
यह सुनते ही रस्सी भी बोल पड़ी, “हमरा के काटे-कुटे न कोई, हम हाथी बाँधब लोई...।”
यह सुन हाथी ने भी कहा, “हमरा के बाँधे-छाँहे न कोई, हम समंदर सुखाएब लोई...।”
हाथी की यह बात सुनते ही समंदर थरथरा उठा, “हमरा के सोखे न कोई, हम आग बुझाइब लोई...।”
अब तो आग की भी शामत आ गई, “हमरा के बुझावे-उझावे न कोई, हम लाठी जारब लोई...।”
और लाठी भी तैयार हो गई, “हमरा के जारे-खोरे न कोई, हम साँप पीटब लोई...।”
लाठी की यह बात सुनते ही साँप भी सकपका गया और बोला, “हमरा के मारे-पीटे न कोई, हम रानी डँसब लोई...।”
साँप की फुंफकार सुन रानी डर गई, “हमरा के डँसे-उसे न कोई, हम राजा बुझाइब लोई...।”
राजा, रानी की बात सुन पहले से तैयार बैठे थे, “हमरा के बुझावे-समझावे न कोई, हम बढ़ई दंडब लोई...।”
राजा ने शीघ्र आदेश दिया और बढ़ई उस पर अमल करते हुए टाँगी लेकर खूँटा फारने के लिए तैयार हो गया, “हमरा के दंड न दे कोई, हम खूँटा फारब लोई...”
बढ़ई का औज़ार देखते ही खूँटा डरकर बोला, “हमरा के फारे-चीरे न कोई, हम अपने फट जाएब लोई...” और खूँटा चर्र से फट गया। यह सब देख चिड़िया तो फूली न समा रही थी। अब उसके दाल के टुकड़े मिल गए। वह दाल के टुकड़े लेकर फुर्र से उड़ गई और ख़ुशी-ख़ुशी परदेश की ओर रुख कर लिया।
- पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 23)
- संपादक : रणविजय राव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2019
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