महेंदर मिसिर

mahendar misir

भोजपुरी पुरबिया के जनक महेंदर मिसिर अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। उनकी खासियत थी कि वे सिर्फ अपने लिखे गीत गाते थे। उनके गीतों की मिठास आज भी ज्यों की त्यों है। स्वर के उस्ताद तो वे थे ही, वाद्य कला में भी उतने ही प्रवीण थे। हारमोनियम, तबला, सितार, सारंगी पर उनकी उँगलियों के करतब देखकर लोग दंग रह जाते थे। कभी-कभी बाँसुरी की मधुर तान के साथ गोपी प्रसंग के गीतों पर जब आलाप लेते थे तो फिजाँ में विरह रस घुलने लगता था।

छपरा से बारह किलोमीटर दूर काहीं मिश्रवलिया गाँव में 16 मार्च, 1886 को हुए महेंदर मिसिर माँ-बाप के अतिशय दुलार में पले थे। उन्हें गीत-गवनई का चस्का था। मगर उनका यह रवैया उनके पिता शिवशंकर मिसिर को पसंद नहीं आया और उन्होंने महेंदर मिसिर को गाँव के ही पंडित नायडू मिश्र की पाठशाला में दाख़िला दिला दिया। लेकिन उनका पढ़ाई में तनिक भी जी नहीं लगता था। हाँ, पंडित जी के मुँह से जो संस्कृत के श्लोक सुनते थे, उसका मर्म भोजपुरी में गीत बना कर गाते थे। संस्कृत परंपरा से सीख लेकर महेंदर मिसिर भोजपुरी का श्रृंगार करने लगे।

उनके पिता शिवशंकर मिसिर वहाँ के एक बड़े ज़मींदार हलवंत सहाय की ज़मींदारी की देखभाल करते थे। एक तरह से वह एक छोटे जागीरदार थे। हलवंत सहाय विधुर और संतानहीन थे। उनका अधिकतर समय नृत्य-संगीत की महफ़िल सजाने में कटता था। महेंदर मिसिर के पिता हलवंत सहाय के यहाँ पूजा-पाठ कराने भी जाया करते थे। एक बार शिवरात्रि के दिन शिवशंकर मिसिर की तबीयत बिगड़ गई, लेकिन कोठी पर पूजा कराना ज़रूरी था, इसलिए उन्होंने महेंदर मिसिर को वहाँ भेज दिया।

पूजा-पाठ कराने के बाद जब वे चलने को हुए, तो शाम हो गई और बूँदा-बूँदी होने लगी। उस दिन हलवंत सहाय ने अपनी कोठी पर महफ़िल बुलाई थी। उन्होंने महेंदर मिसिर को उस रात कोठी पर ही रोक लिया। महफ़िल सजी और साजिंदों ने सुर मिलाया, लेकिन तबलची जाने कहाँ चला गया। महेंदर मिसिर ने हलवंत सहाय की तरफ़ कुछ इस निगाह से देखा जैसे वे तबला बजाने की इजाज़त चाहते हों। हलवंत सहाय ने हामी भर दी। तबले पर थाप पड़ी और घुंघरू बोल उठे। वह नर्तकी क्या गजब का नृत्य कर रही थी, सभी मेहमान मंत्रमुग्ध इस दृश्य को देख रहे थे। लेकिन धीरे-धीरे तबले की थिरकन नर्तकी के नर्तन पर भारी पड़ने लगी। अंत में थककर हताश भाव से खड़ी हो गई। तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी, लोग

महेंदर मिसिर के मुरीद हो गए।

सहाय जी उस समय की सबसे मशहूर तवायफ मुज़फ़्फ़रपुर की ढेलाबाई के प्रेम में गिरफ़्तार थे। वे किसी भी क़ीमत पर ढेलाबाई को पाना चाहते थे। उन्होंने यह बात महेंदर मिसिर को बताई। महेंदर मिसिर ने कहा कि अगर आप उन्हें पत्नी का दर्जा देंगे तो वे कुछ कर सकते हैं। हलवंत सहाय ने हामी भर दी। थोड़े ही दिनों बाद जब सोनपुर में मेला लगा, तो वहाँ महफ़िल सजाने के लिए ढेलाबाई भी पहुँची। मिसिर जी ने वहीं से ढेलाबाई को अगवा कर लिया और हलवंत सहाय के यहाँ ले आए। ढेलाबाई को पाकर हलवंत सहाय ने जैसे सब कुछ पा लिया। उन्होंने अपनी सारी जायदाद ढेलाबाई के नाम कर दी। ढेलाबाई ने भी धीरे-धीरे नाचना-गाना छोड़ दिया।

छपरा में रहते हुए एक दिन उनकी मुलाक़ात मुक्तानंद से हुई, जो एक क्रांतिकारी संगठन के सदस्य थे। वे कलकत्ता से महेंदर मिसिर के लिए एक संदेश लेकर आए थे, जिसमें कहा गया था कि वे बनारस जाकर अभयानंद जी से मुलाकात करें। महेंदर मिसिर बनारस पहुँच गए। वे गए तो थे सिर्फ़ अभयानंद से भेंट करने, लेकिन एक बार वहाँ पहुँचे तो तीन महीने वहीं रह गए। वहाँ रहते हुए उनके गीतों की ज़बर्दस्त धूम मची। रसिक जन महेंदर मिसिर के गीतों के दीवाने हो चले। इसी सिलसिले में उनकी मुलाक़ात केसरबाई और विद्याधरीबाई जैसी मशहूर गायिका-नतर्कियों से हुई। केसरबाई ने तो मिसिर जी से बाक़ायदा पूर्वी ठाठ का संगीत भी सीखा।

बनारस ने उनकी जीवन की दिशा ही बदल दी। अभयानंद के सहयोग से उन्हें नोट छापने की एक मशीन मिल गई। मशीन लेकर मिसिर जी छपरा गए और योजनाबद्ध तरीक़े से नोट छापने और उसे बाज़ार में चलाने का काम करने लगे। ज़ाहिर है, महेंदर मिसिर ने जाली नोटों से अपने लिए भी सुख-सुविधाएँ जुटाईं और तवायफों पर ख़ूब पैसे उड़ाए, लेकिन नोट छापने के धँधे के पीछे वास्तविक उद्देश्य था क्रांतिकारियों और उनके परिजनों को आर्थिक सहायता पहुँचाना। मिसिर जी ने इस उद्देश्य से कभी समझौता नहीं किया। बंगाल समेत देश के अन्य हिस्सों में काम करने वाले क्रांतिकारियों की ख़ूब मदद की।

महेंदर मिसिर की शाहखर्ची के क़िस्से अब मशहूर होने लगे थे। हुक्मरानों को पहली बार संदेह तब हुआ, जब 1905 में सोनपुर के मेले में ज़्यादा तवायफों के तंबू मिसिर जी की तरफ से लगवाए गए थे। इस मामले में मिसिर जी ने देश के बड़े-बड़े ज़मींदारों को भी पीछे छोड़ दिया था। बस क्या था, पुलिस उनके पीछे लग गई। जाँच करने और सबूत इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी सीआईडी इंस्पेक्टर सुरेंद्रनाथ घोष और जटाधारी प्रसाद को मिली। सुरेंद्रनाथ घोष किसी तरह मिसिर जी का नौकर बनने में कामयाब हो गया और गोपीचंद के नाम से साईस बनकर उनके घोड़े की देखभाल करने लगा।

धीरे-धीरे गोपीचंद उनके नोट छापने का राज़ जान गया। उसी के इशारे पर उनके यहाँ पुलिस का छापा पड़ा। 16 अप्रैल, 1924 को उनके चारों भाइयों समेत महेंदर मिसिर को गिरफ्तार कर लिया गया। इसी अवसर पर महेंदर मिसिर ने यह प्रसिद्ध गीत लिखा था, ‘पाकल-पाकल पनवा, खियवले गोपीचनवा’ जो बाद में बिदेसिया फिल्म में ‘हँसी-हँसी पनवा, खियवले बेईमनवा’ के रूप में सामने आया। जब ढेलाबाई को महेंदर मिसिर की गिरफ़्तारी की ख़बर मिली तो वह बहुत दुखी हुई। मिसिर जी को छुड़ाने के लिए उसने शहर के सबसे बड़े वकील को नियुक्त किया। लेकिन वे महेंदर मिसिर को बचाने में नाकाम रहे। देशद्रोह और अन्य आपराधिक धाराओं के तहत मिसिर जी को चालीस वर्ष सश्रम कारावास की सज़ा मिली और उन्हें बक्सर जेल में डाल दिया गया।

बक्सर जेल में रहते हुए उन्होंने सात खंडों में ‘अपूर्व रामायण’ की रचना की थी। महेंदर मिसिर के गीत किसी के भी अंतर्मन को छू लेने में सक्षम हैं। विरही नायिका की विकलता और उसकी सास की निष्ठुरता का क्या ही मर्मस्पर्शी बयान कर इन पंक्तियों में मिलता है-सासु मोरा मारे रामा बाँस के छिउकिया, ननदिया मोरी हे सुसुकत पनिया के जाए/गंगा रे जमुनवाँ के चिकनी डगरिया ननदिया मोरी हे पउवा धरत बिछुलाय / गावत महेंदर मिसिर इहो रे पुरुबिया ननदिया मोरी हे/पिया बिना रहलो ना जाए। इसी तरह विदग्ध नायिका का चित्रण का यह गीत—“अँगुरी में डसले बिया नगिनियाँ हे ननदी दियरा जरा द/दियरा जरा अपना भइया के जगा ननदी/नसे-नसे उठेला दरदिया हे ननदी दियरा जरा द।” उन्होंने सैकड़ों गीत और दर्जन भर से ज़्यादा पुस्तकें लिखीं। उनके गीत लोक जीवन के दस्तावेज़ हैं, लोक साहित्य की अनमोल धरोहर हैं।

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