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मैथिली लोकगीत : सून भवन हरि गेलाह बिदेसे

maithili lokgit ha soon bhawan hari gelah bidese

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रोचक तथ्य

संदर्भ—विरहिणी का सखी से वियोग-वर्णन।

सून भवन हरि गेलाह बिदेसे।

कापर खेएब बारि बयेसे।।1।।

सर मेल चंचल फूल भेल भार।

निसदिन मन एतय रहय उदास।।2।।

कहि गेला हरि आएब फेर।

घुरि नहिं तकलन्हि एकहुँ बेर।।3।।

हुनकहु बचनक नहिं बिस्वास।

हमरहु जानि सखि कैल निरास।।4।।

‘बासुदेव' मन मनिता लगाय।

हरि हरि कहिक दिवस गमाय।।5।।

मेरा भवन सूना है, स्वामी विदेश गए हैं। मैं अपना नव यौवन कैसे बिताऊँगी?।।1।।

मेरा सिर की वेणी चंचल हो रही है और उसके फूल भार स्वरूप हो गए हैं। इससे मेरा मन रात-दिन उदास रहता है।।2।।

मेरे प्रिय कह गए थे कि मैं फिर आऊँगा, किंतु उन्होंने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा।।3।।

उनके वचनों का विश्वास नहीं है। सखी! उन्होंने मुझे जानबूझ कर निराश किया है।।4।।

‘वासुदेव' कवि कहते हैं—हे वनिते! ‘हरि-हरि' कहकर दिवस बिताओ।।5।।

स्रोत :
  • पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 55)
  • संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
  • प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
  • संस्करण : 2002

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