प्रस्तुत संकलन में तीन निबंध क्रमश: 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य', 'काव्य में रहस्यवाद' और 'काव्य में अभिव्यंजनावाद' है। इन निबंधों को आत्मसात करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि काव्य सलिला उक्त सोपान साहित्यिक रसानुभूनित कराते हुए हृदय संपन्न मनुष्य को भावातिरेक अभिभूत कर देता है। 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' में प्रकृति की भावभंगिमाएं मानवीय कृत्यों के बिम्ब के रूप में प्रकट होकर साहित्य प्रेमी के आल्हादित करती हुई प्रतीत होती हैं। दूसरे निबंध 'काव्य में रहस्यवाद' आकृष्ट करता है कि मानव अपनी वास्तविकता ढूंढ़ता हुआ शरीर, मन व आत्मा के खेल को दक्षता से समझने को आतुर है। तीसरे निबंध 'काव्य में अभिव्यंजनावाद' में काव्य के अर्थ की महत्ता पर लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्तियों का आह्वान कर सामान्य कथन को अभिव्यंजित करने की दक्षता का बखान प्रकट करता है, जिससे योग्य व प्रकरण संबंधी अर्थ प्राप्त किया जाता है। इस विशिष्टता को इस निबंध में चितेरे की भांति उकेरा गया है।
रामचंद्र शुक्ल का जन्म बस्ती जिले के अगोना नामक गाँव में सन् 1884 ई. में हुआ था। जब ये आठ वर्ष के थे, तब उनके पिता की नियुक्ति मीरजापुर में सदर कानूनगो के रूप में हो गयी और वे पिता के साथ मीरजापुर आ गये। पिता ने इन पर उर्दू और अंग्रेजी पढ़ने के लिए ज़ोर दिया लेकिन वे पिता की आँख बचाकर हिन्दी भी पढ़ते रहे। इनका विद्यार्थी जीवन बहुत उज्ज्वल नहीं रहा। वे कई परीक्षाओं में असफल रहे। परन्तु इन परीक्षाओं की सफलता या असफलता से अलग वे बराबर साहित्य, मनोविज्ञान, इतिहास आदि के अध्ययन में लगे रहे। मीरजापुर के पं. केदारनाथ पाठक, बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमधन' के सम्पर्क में आकर उनके अध्ययन-अध्यवसाय को और बल मिला। यहीं पर उन्होंने हिन्दी, उर्दू, संस्कृत एवं अंग्रेजी के साहित्य का वह गहन अनुशीलन प्रारम्भ कर दिया था, जिसका उपयोग वे आगे चल कर अपने लेखन में जमकर कर सके।
मीरजापुर के एक कार्यालय में उन्होंने कुछ समय नौकरी भी की, पर हेड क्लर्क से उनके स्वाभिमानी स्वभाव की पटी नहीं। उसे उन्होंने छोड़ दिया। फिर कुछ दिन मीरजापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के अध्यापक रहे। सन् 1909-10 ई. के लगभग वे ‘हिन्दी शब्द सागर' के सम्पादन में वैतनिक सहायक के रूप में काशी आए। इस कोश के प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदर दास थे। सन् 1927 में इस कोश का कार्य पूरा हुआ जिसकी लंबी भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखी। यही भूमिका बाद में परिवर्तित रूप में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के रूप में प्रकाशित हुई। इन्होंने 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का सम्पादन भी कुछ दिन किया था। कोश का कार्य समाप्त हो जाने के बाद शुक्ल जी की नियुक्ति हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस में हिन्दी के अध्यापक के रूप में हो गयी। कुछ समय उन्होंने अलवर में भी नौकरी की, पर रुचि का काम न होने से पुनः काशी लौट आए। सन् 1937 ई. में वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए एवं इस पद पर रहते हुए ही सन् 1941 ई. में उनकी श्वास के दौरे में हृदय गति बन्द हो जाने से मृत्यु हो गयी।
शुक्ल जी का साहित्यिक व्यक्तित्व विविध पक्षों वाला है। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन के प्रारम्भ में लेख लिखे हैं और फिर गम्भीर निबन्धों का प्रणयन किया है। उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ीबोली में फुटकर कविताएँ लिखी तथा एडविन आर्नल्ड के 'लाइट आफ एशिया' का 'बुद्ध चरित' के नाम से ब्रजभाषा में पद्यानुवाद किया। मनोविज्ञान, इतिहास, संस्कृति, शिक्षा एवं व्यवहार-सम्बन्धी लेखों एवं पत्रिकाओं के भी अनुवाद किए तथा जोसेफ एडिसन के 'प्लेजर्स ऑफ इमेजिनेशन' का ‘कल्पना का आनन्द' नाम से एवं राखाल दास वन्द्योपाध्याय के 'शशांक' उपन्यास का भी हिन्दी में रोचक अनुवाद किया। सैद्धान्तिक समीक्षा पर लिखे उनके लेख मृत्युपरांत 'रस मीमांसा' नामक पुस्तक में संकलित किए गए। तुलसी, सूर और जायसी के साहित्य पर लम्बी व्यावहारिक समीक्षाएँ लिखीं, जो अलग से ‘त्रिवेणी’ नामक पुस्तक रूप में भी उपलब्ध हैं। दर्शन के क्षेत्र में भी उनकी 'विश्व प्रपंच' पुस्तक उपलब्ध है। यह 'रिडल ऑफ दि यूनीवर्स' का अनुवाद है पर उसकी लम्बी भूमिका शुक्ल जी द्वारा किया गया मौलिक प्रयास है।
इस सम्पूर्ण लेखन में भी उनका सबसे महत्त्वपूर्ण एवं कालजयी रूप समीक्षक, निबन्ध-लेखक एवं साहित्यिक इतिहासकार के रूप में प्रकट हुआ है। नलिनविलोचन शर्मा ने अपनी पुस्तक 'साहित्य का इतिहास दर्शन' में कहा है कि शुक्ल जी से बड़ा समीक्षक सम्भवतः उस युग में किसी भी भारतीय भाषा में नहीं था। यह बात विचार करने पर सत्य प्रतीत होती है, बल्कि ऐसा लगता है कि समीक्षक के रूप में शुक्ल जी अब भी अपराजेय हैं। अपनी समस्त सीमाओं के बावजूद उनका पैनापन, उनकी गम्भीरता एवं उनके बहुत से निष्कर्ष एवं स्थापनाएँ किसी भी भाषा के समीक्षा-साहित्य के लिए गर्व का विषय बन सकती हैं। हिन्दी-समीक्षा को अपेक्षित धरातल देने में सबसे बड़ा हाथ उनका ही रहा है।
समीक्षक के रूप में शुक्ल जी पर विचार करते ही एक तथ्य सामने आ जाता है कि उन्होंने अपनी पद्धति को युगानुकूल नवीन बनाया था। रस और अलंकार आदि का प्रयोग अपने समीक्षात्मक प्रयासों में शुक्ल जी से पहले के लोगों ने भी किया था पर उन्होंने इस सिद्धान्तों की, मनोविज्ञान के आलोक में एवं पाश्चात्य शैली पर, कुछ ऐसी अभिनव व्याख्या दी कि ये सिद्धान्त समीक्षा से बहिष्कृत न होकर पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए। इस प्रकार जहाँ उन्होंने एक ओर अपनी आलोचनाओं का ढाँचा भारतीय रहने दिया है, वहीं पर उसका बाह्य रूप एवं रचना-विधान पश्चिम से लिया है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह निर्णय करना कठिन है कि उनकी समीक्षा में देशी और विदेशी तत्त्वों का मिश्रण किस अनुपात में हुआ है। इस सम्बन्ध में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस पद्धति का प्रयोग उन्होंने तुलसी, सूर या जायसी जैसे श्रेष्ठ कवियों की समीक्षाओं में ही नहीं, अपने इतिहास मे छोटे कवियों पर भी, उतनी ही सफलता से किया है। रामचन्द्र शुक्ल के समीक्षक-व्यक्तित्व की दूसरी विशेषता या महानता है कि उन्होंने मानदण्ड-निर्धारण और उनका प्रयोग दोनों कार्य एक साथ किए हैं तथा इस दोहरे कार्य में कथनी और करनी का अन्तराल कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, बल्कि यों कहें कि अपने मनोविकारों वाले निबन्धों में जीवन, साहित्य और भावों के मध्य जो सम्बन्ध देखा था, उसी के आधार पर उन्होंने अपनी समीक्षा के मानदण्ड निर्धारित किए एवं इन सिद्धान्तों का व्यावहारिक उपयोग उन्होंने फिर किया। सिद्धान्त एवं व्यवहार के मध्य ऐसी संगति श्रेष्ठतम आलोचकों में ही प्राप्त होती है।
उनकी एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता समसामयिक काव्य-चिन्तन संबंधी जागरूकता है। उन्होंने जिन साहित्य-मीमांसकों एवं रचनाकारों को उद्धृत किया है, उनमें से अधिकांश को आज भी हिन्दी के तमाम आचार्य और स्वनामधन्य आलोचक नहीं पढ़ते । सम्भवतः रामचन्द्र शुक्ल उन प्रारम्भिक व्यक्तियों में होंगे, जिन्होंने इलियट जैसे रचनाकारों का भारत में पहली बार उल्लेख किया है। 1935 ई. में इन्दौर के हिन्दी-साहित्य सम्मेलन की साहित्य परिषद् के अध्यक्ष पद से दिया गया भाषण काव्य में अभिव्यंजनावाद' में इस जागरुकता के सबसे अधिक दर्शन होते हैं। उन्होंने पहली बार हिन्दी में सामाजिक-मनोवैज्ञानिक आधार पर किसी कवि की विवेचना की। एक ओर उन्होंने सामाजिक सन्दर्भ को महत्त्व प्रदान दिया एवं दूसरी ओर रचनाकार की व्यक्तिगत मन: स्थिति का हवाला दिया। शुक्ल जी श्रुति नहीं, मुनि-मार्ग के अनुयायी थे। किसी भी मत, विचार या सिद्धान्त को उन्होंने बिना अपने विवेक की कसौटी पर कसे स्वीकार नहीं किया। यदि उनकी बुद्धि को वह ठीक नहीं जंचा, तो उसके प्रत्याख्यान में तनिक भी मोह नहीं दिखाया। इसी विश्वास के कारण वे क्रोचे, रवीन्द्र, कुन्तक, ब्लेक या स्पिन्गार्न की तीखी समीक्षा कर सके थे।
आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने सदैव लोक-संग्रह की भूमिका पर काव्य को परखना चाहा, इस लोकसंग्रह सम्बन्धी धारणा में उनकी मध्यवर्गीय तथा कुछ मध्ययुगीन नैतिकता एवं स्थूल आदर्शवाद का भी मिश्रण था। इस कारण उनकी आलोचना यत्र-तत्र स्खलित भी हुई है। शुक्ल जी ने काव्य को कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष रखते हुए ‘भावयोग’ कहा, जो मनुष्य के हृदय को मुक्तावस्था में पहुँचाता है। वर्ण्य-विषय की दृष्टि से उन्होंने काव्य को ‘सिद्धावस्था’ और ‘साधनावस्था’ के रूप में विभाजित किया है। रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के प्रथम साहित्यिक इतिहास लेखक हैं, जिन्होंने मात्र कवि-वृत्त-संग्रह से आगे बढ़कर, शिक्षित जनता की जिन-जिन प्रवृत्तियों के अनुसार हमारे साहित्य के स्वरूप में जो-जो परिवर्तन होते आए हैं, जिन-जिन प्रभावों की प्रेरणा से काव्यधारा की भिन्न-भिन्न शाखाएँ फूटती रही हैं, उन सबके सम्यक् निरूपण तथा उनकी दृष्टि से किए हुए सुसंगठित काल-विभाग की ओर ध्यान दिया।
उन्होंने साहित्य को ‘शिक्षित जनता’ के साथ सम्बद्ध किया और उनका इतिहास केवल कवि-जीवनी से आगे बढ़कर सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों से संकलित हो उठा। इसके अतिरिक्त उन्होंने सामान्य प्रवृत्तियों के आधार पर कालविभाजन और उन युगों का नामकरण किया।
रामचन्द्र शुक्ल का तीसरा महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व निबन्धकार का है। इन निबन्धों में जो गम्भीरता, विवेचन में जो पाण्डित्य एवं तार्किकता तथा शैली में जो कसाव मिलता है, वह इन्हें अभूतपूर्व दीप्ति दे देता है। उनके महत्त्वपूर्ण निबन्धों को मनोविकार सम्बन्धी, सैद्धान्तिक समीक्षा सम्बन्धी एवं व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी तीन भागों में बाँटा जा सकता है। साहित्यिक इतिहास लेखक के रूप में उनका स्थान हिन्दी में अत्यन्त गौरवपूर्ण है, निबन्धकार के रूप में वे किसी भी भाषा के लिए गर्व के विषय हो सकते हैं तथा समीक्षक के रूप में वे हिन्दी में अभी तक अप्रतिम हैं।