तिअड्डा चापी जोइनि दे अङ्कवाली

tiaDDa chapi joini de ankwali

गुंडरिपा

गुंडरिपा

तिअड्डा चापी जोइनि दे अङ्कवाली

गुंडरिपा

तिअड्डा चापी जोइणि दे अङ्कवाली।

कमल कुलिश घाण्टे करहुँ बिआली॥

***

जोइनि तँइ बिनु खनँहि जीवमि।

तो मुह चुम्बी कमल रस पीबमि॥

***

खेपहुँ जोइनि लेप जाअ।

मणिकुले बहिआ ओडिआणे समाअ॥

***

सासु घरेँ धालि कोञ्चा ताल।

चान्द सुज बेणि पखा फाल॥

***

भणइ गुडरी अह्मे कुन्दुरे वीरा।

नरअ नारी मझेँ उभिल चीरा॥

***

त्रिनाड़ी (ललना, रसना, अवधूतिका) को साधकर योगिनी ही साधक को स्वचिह्न दान करती है अर्थात् स्वरूप दान करती है और उसे पालती है। इसलिए हे योगिवर! तुम कमल और कुलिश के सम्यक् संयोग से कालरहित महामुद्रासिद्धि का साक्षात्कार लाभ प्राप्त करो।

हे योगिनी! मैं तुमसे अलग होकर क्षणभर भी नहीं बचूँगा। सहजानंदरूपी तुम्हारे मुख का चुंबन कर मैं बोधिचित्तरूप कमलरस का पान करूँगा।

आनंद से उठकर योगिनी मणिमूल में गमन करती है तो वह मोहमल से लिप्त हो जाती है; वहाँ क्रीड़ारस का अनुभव कर, पुनः महासुखचक्र में आरूढ़ हो प्रवेश करती है।

श्वास को उसके घर (शरीर) में अवरुद्ध कर दृढ़ ताला लगाओ; चंद्र और सूर्ययुक्त प्रवाह शृंगार को तोड़ दो।

गुंडरीपा कहते हैं—कुन्दुरु योग के अनुष्ठान द्वारा मैं वीर बना हूँ और मैंने समस्त नर-नारियों के बीच ऊर्ध्वलोकवासी योगी का वल्कल धारण किया है।

स्रोत :
  • पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 32)
  • संपादक : रणजीत साहा
  • रचनाकार : गुण्डरीपा
  • प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
  • संस्करण : 2010

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