“रश्मिबंध” पहला ही संकलन है जिसमें मेरी ‘वीणा’ से लेकर ‘वाणी’ तक की चुनी हुई रचनाएँ संग्रहीत है। इसके छोटे आकार में मेरी वाणी केवल इंगितों द्वारा ही अपने को अभिव्यक्त कर सकी है; फिर भी, चयन की दृष्टि से, मुझे विश्वास है, यह किरणों का पुलिंदा, अपने सतरंग-वैभव से पाठकों का ध्यान आकर्षित कर, अपना नाम सार्थक कर सकेगा।
अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश करने के लिए कवि या कलाकार कहाँ से, कैसे, प्रेरणा ग्रहण कर ‘मंदः कवियशः प्रार्थी’ का कार्य आरंभ करता है, यह बतलाना कठिन है। संभवतः तब प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं। अपने समय के प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं से ही किसी न किसी रूप में प्रभावित होकर उदीयमान कवि अपनी लेखनी की परीक्षा लेता है। जब मैंने कविता लिखना प्रारंभ किया था, तब मुझे भी ज्ञात नहीं था कि काव्य की मानव-जीवन के लिए क्या उपयोगिता या महत्ता है! न मैं यही जानता था कि उस समय काव्य-जगत् में कौन-सी शक्तियाँ कार्य कर रही थी। जैसे एक दीपक दूसरे दीपक को जलाता है, उसी प्रकार द्विवेदी-युग के कवियों की कृतियों ने मेरे हृदय को अपने सौंदर्य से स्पर्श किया और उसमें एक प्रेरणा की शिखा जगा दी। उसके प्रकाश में भी अपने भीतर-बाहर अपनी रुचि के अनुकूल काव्य के उपादानों का चयन एवं संग्रह करने लगा। यह ठीक है कि दीपशिखा जैसे तद्वत् दूसरी दीपशिखा को जन्म देती है, उस प्रकार पिछली पीढ़ी की काव्य-चेतना मेरे भीतर ज्यों की त्यों नहीं उतर आई। मेरे मन ने अपनी रुचि के अनुरूप उसका संस्कार कर उसमें अपने की छाप लगा दी।
अपने काव्य-जीवन पर दृष्टिपात करने पर मेरे भीतर यह बात स्पष्ट हो उठती है कि मेरे किशोर-प्राण मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौंदर्य को है जिसकी गोद में पलकर में बड़ा हुआ हूँ। मेरे भीतर ऐसे संस्कार अवश्य रहे होंगे, जिन्होंने मुझे कवि-कर्म करने की प्रेरणा दी, किंतु उस प्रेरणा के विकास के लिए स्वप्नों के पालने की रचना पर्वत-प्रदेश की दिगंत-व्यापी प्राकृतिक शोभा ही ने की, जिसने छटपन से ही मुझे अपने रुपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मि-दोल में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कंठ वनपाखियों के साथ बोलना-कुहुकना सिखलाया। प्रकृति-निरीक्षण और प्रकृति प्रेम मेरे स्वभाव के अभिन्न अंग ही बन गए हैं, जिनसे मुझे जीवन के अनेक संकट क्षणों में अमोघ सांत्वना मिली है।
कौसानी की उस जुगनुओं की जगमगाती हुई एकांत घाटी का अवाक् सौंदर्य मेरी रचनाओं में अनेक विस्मयभरी उद्भावनाओं में प्रकट हुआ है :
“उस फैली हरियाली में
कौन अकेली खेल रही मा,
वह अपनी वय बाली में!—”
ऊषा, संध्या, फूल, कोपल, कलरव, मर्मर, ओसों के वन और नदी-निर्झर मेरे एकाकी किशोर-मन को सदैव अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं और सौंदर्य के अनेक सद्य स्फुट उपकरणों से प्रकृति की मनोरम मूर्ति रचकर, मेरी कल्पना, समय-समय पर, उसे काव्य-मंदिर में प्रतिष्ठित करती रही है। प्रस्तुत संग्रह की हिम-प्रदेश शीर्षक रचना में कौसानी का वर्णन इस प्रकार आया है—
“आरोही हिमगिरि चरणों पर
रहा ग्राम वह मरकत मणि कण
श्रद्धानत-आरोहण के प्रति
मुग्ध प्रकृति का आत्म-समर्पण!
साँझ प्रात स्वर्णिम शिखरों से
द्वाभाएँ बरसातीं वैभव,
ध्यानमग्न निःस्वर निसर्ग निज
दिव्य रूप का करता अनुभव!”
‘हिमाद्रि’ शीर्षक रचना में भी प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक रूपों का चित्रण मिलेगा—
“मेघों की छाया के सँग-सँग,
हरित घाटियाँ चलतीं प्रतिक्षण,
वन के भीतर उड़ता चंचल
चित्र तितलियों का कुसमित वन!
रँग-रँग के उपलों पर रणमण
उछल उत्स करते कल गायन,
झरनों के स्वर जम-से जाते
रजत हिमानी सूत्रों में घन!”
‘मेरा रचना-काल’ तथा ‘मैं और मेरी कला’ आदि शीर्षक अपने निबंधों में मैंने कवि-जीवन की प्रारंभिक अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया है : “तब मैं छोटा-सा चंचल-भावुक किशोर था, मेरा काव्यकंठ अभी नहीं फूटा था। पर, प्रकृति मुझ मातृहीन बालक को कवि-जीवन के लिए, मेरे बिना जाने ही, जैसे तैयार करने लगी थी। मेरे हृदय में वह अपनी मीठी, स्वप्नों से भरी चुप्पी अंकित कर चुकी थी, जो पीछे मेरे भीतर अस्फुट तुतले स्वरों में बज उठी। पहाड़ों-पेड़ों का क्षितिज न जाने कितने ही हल्के-गहरे रंगों की कोपलों और फूलों में मर्मर गुंजन भरकर मेरे भीतर अपनी सुंदरता की रंगीन सुगंधित तहे जमा चुका था। ‘मधुबाला’ की ‘मधुबोली सी-अपने हृदय की उस गुजार को मैंने ‘वीणा’ नामक काव्य-संग्रह में ‘यह तो तुतली बोली में है एक बालिका का उपहार’ कहा है। पर्वत-प्रदेश के उज्ज्वल चंचल सौंदर्य ने मेरे जीवन के चारों ओर अपने नीरव सम्मोहन का जाल बुनना शुरू कर दिया था। मेरे मन के भीतर बरफ़ की ऊँची चमकीली चोटियाँ रहस्य-भरे शिखरों की तरह उठने लगी थी, जिन पर टिका हुआ रेशमी आकाश, विशाल पक्षी की तरह अपने निःस्वर नील पंख फैलाए प्रतिक्षण जैसे उड़ने को प्रस्तुत लगता था। कितने ही इंद्रधनुष मेरे कल्पना-पट पर रंगीन रेखाएँ खींच चुके थे, बिजलियाँ बचपन की आँखों को चकाचौंध कर चुकी थी, फेनों के झरने मेरे मन को फुसलाकर अपने साथ गाने के लिए बहा ले जाते और सर्वोपरि हिमालय का आकाशचुंबी सौंदर्य मेरे हृदय पर एक महान् संदेश, एक स्वर्गोन्मुख उदात्त आदर्श तथा एक विराट् व्यापक आनंद, सौंदर्य तथा तपःपूत पवित्रता की तरह प्रतिष्ठित हो चुका था।”
‘आगे चलकर अपनी ‘हिमाद्रि’ शीर्षक रचना में मैंने अपनी इस अनुभूति को इस प्रकार वाणी दी है :
“शिखर शिखर ऊपर उठ तुमने
मानव-आत्मा कर दी ज्योतित
हे असीम आत्मानुभूति में लीन
ज्योति श्रृंगो के भूभृत्।”
* * *
“सोच रहा, किसके गौरव से
मेरा यह अंतर्जग निर्मित,
लगता तब, हे प्रिय हिमाद्रि,
तुम मेरे शिक्षक रहे अपरिचित।”
सन् 1918 से 20 तक की मेरी अधिकांश रचनाएँ ‘वीणा’ नामक काव्य संग्रह में छपी है। ‘वीणा’ काल में मैंने प्रकृति की छोटी-मोटी वस्तुओं को अपनी कल्पना की तूली से रंगकर काव्य की सामग्री इकट्ठा की है। ‘वीणा’ में प्रकाशित ‘प्रथम रश्मि’ नामक कविता ने काव्य-साधना की दृष्टि से नवीन प्रभात किरण की तरह प्रवेश कर मेरे भीतर ‘पल्लव’ काल के काव्य जीवन का समारंभ कर दिया था। सन् 1916 की जुलाई में मैं कालेज में पढ़ने के लिए प्रयाग आया, तब से प्रायः दस साल तक प्रयाग ही में रहा। यहाँ मेरा काव्य-संबंधी ज्ञान धीरे-धीरे व्यापक होने लगा। शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अँग्रेज़ी कवियों से मैंने बहुत कुछ सीखा। मेरे मन में शब्द चयन और ध्वनि-सौंदर्य का बोध पैदा हुआ–‘पल्लव’ काल की प्रमुख रचनाओं का आरंभ इसके बाद ही होता है। प्रकृति-सौंदर्य और प्रकृति प्रेम की अभिव्यंजना ‘पल्लव’ में अधिक प्रांजल तथा परिपक्व रूप में हुई है। ‘वीणा’ की विस्मयभरी रहस्यप्रिय बालिका अधिक मासल, सुरुचि सुरंग पूर्ण बनकर, प्रायः मुग्धा युवती का हृदय पाकर, जीवन के प्रति अधिक संवेदनशील होकर, ‘पल्लव’ में प्रकट हुई है। इस प्रकार प्रकृति की रमणीय वीथिका से होकर ही में काव्य के भाव विशद सौंदर्य-प्रसाद में प्रवेश पा सका।
‘पल्लव’ की छोटी-बड़ी अनेक रचनाओं में प्राकृतिक सौंदर्य की झाँकियाँ दिखाती हुई तथा भावना के अनेक स्तरों को स्पर्श करती हुई मेरी कल्पना ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता में मेरे उस काल के हृदय मंथन तथा बौद्धिक संघर्ष का विशाल दर्पण-सी बन गई है, जिसमें ‘पल्लव’ युग का मेरा मानसिक विकास तथा जीवन की संग्रहणीय अनुभूतियों के प्रति मेरा दृष्टिकोण प्रतिबिंबित है। इस अनित्य जगत् में नित्य जगत् को खोजने का प्रयत्न मेरे जीवन में ‘परिवर्तन’ के रचना-काल से ही प्रारंभ हो गया था। ‘परिवर्तन’ उस अनुसंधान का केवल एक प्रारंभिक भावोच्छ्वास मात्र है।
‘वीणा’ काल का प्राकृतिक सौंदर्य का प्रेम ‘पल्लव’ को रचनाओं में भावना के सौंदर्य की माँग बन गया है और प्राकृतिक रहस्य को भावना ज्ञान की जिज्ञासा में परिणत हो गई है। ‘वीणा’ की रचनाओं में जो स्वाभाविकता मिलती है, वह ‘पल्लव’ में कला संस्कार तथा अभिव्यक्ति के मार्जन में बदल गई है। ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाएँ प्रयाग में लिखी गई हैं। सन् 1921 के असहयोग आंदोलन के साथ ही हमारे देश की बाहरी परिस्थितियों ने भी जैसे हिलना-डुलना सीखा। युग-युग से जड़ीभूत उनकी वास्तविकता में सक्रियता तथा जीवन के चिह्न प्रकट होने लगे। इस जागरण के भीतर से एक नवीन वास्तविकता की रूप-रेखा चित्त को आकर्षित करने लगी। मेरे मन में वे संस्कार धीरे-धीरे संचित तो होने लगे, पर ‘पल्लव’ की रचनाओं में वे मुखरित नहीं हो सके। ‘पल्लव’ की सीमाएँ छायावादी अभिव्यंजना की सीमाएँ हैं। वह पिछली वास्तविकता के निर्जीव भार से आक्रांत उस भावना की पुकार थी जो बाहर की ओर राह न पाकर भीतर की ओर स्वप्न सोपानों पर आरोहण करती हुई युग के अवसाद तथा विवशता को वाणी देने का प्रयत्न कर रही थी और साथ ही कल्पना द्वारा नवीन वास्तविकता की अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा कर रही थी। ‘पल्लव’ को प्रतिनिधि रचना ‘परिवर्तन’ में विगत वास्तविकता के प्रति असंतोष तथा परिवर्तन के प्रति आग्रह की भावना विद्यमान है। साथ ही जीवन की अनित्य वास्तविकता के भीतर से नित्य सत्य को खोजने का प्रयत्न भी है, जिसके आधार पर नवीन वास्तविकता का निर्माण किया जा सके। ‘गुंजन’ काल की रचनाओं में जीवन-विकास के सत्य पर मेरा विश्वास प्रतिष्ठित हो चुका है :
“सुंदर से नित सुंदरतर, सुंदरतर से सुंदरतम
सुंदर जीवन का क्रम रे, सुंदर-सुंदर जग जीवन।”
आदि रचनाओं में मेरा मन युगीन वास्तविकता से ऊपर उठकर स्थाई वास्तविकता के विजय-गीत गाने को लालायित हो उठता है और उसके लिए आवश्यक साधना को अपनाने की तैयारी करने लगता है। उसे चाहिए विश्व को नव जीवन का अनुभव भी होने लगता है और वह अपनी इस आकांक्षा से व्याकुल रहने लगा है।
‘गुंजन’ में धीरे-धीरे मैंने अपनी ओर मुड़कर तथा अपने भीतर देखकर अपने बारे मे गुनगुनाना सीखा। अपने भीतर मुझे अधिक नहीं मिला। व्यक्तिगत आत्मोन्नयन के सत्य में मुझे तब कुछ भी मोहक, सुंदर तथा महत्त्वपूर्ण नहीं दिखाई दिया। मैंने जीवन मुक्ति के लिए छटपटाती हुई अपनी जीवन-कामना तथा राग-भावना को ‘ज्योत्स्ना’ के रूपक में अधिक व्यापक, सामाजिक, अवैयक्तिक तथा मानवीय धरातल पर अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर व्यक्तिगत जीवन-साधना के प्रति जिसकी क्षीण प्रतिध्वनियाँ ‘गुंजन’ में मिलती है–विद्रोह प्रकट किया और अपने परिवेश की सामाजिक चेतना से असंतुष्ट होकर, एक अधिक संस्कृत, सुंदर एवं मानवोचित सामाजिक जीवन का स्वप्न प्रस्तुत किया।
‘ज्योत्स्ना’ में मैंने नवीन जीवन तथा युग परिवर्तन की धारणा को सामाजिक रूप प्रदान करने का प्रयत्न किया है। ‘पल्लव’ कालीन जिज्ञासा तथा भावना के कुहासे से निखरकर ‘ज्योत्स्ना का जगत्, जीवन के प्रति नवीन विश्वास, आशा तथा उल्लास लेकर प्रकट होता है। ‘युगांत’ में मेरा वह विश्वास बाहर को दिशा की और भी सक्रिय हो उठता है और विकासकामी हृदय क्रांतिकामी भी हो जाता है। ‘युगांत’ की क्रांति-भावना में आवेश है, और है नवीन मनुष्यत्व के प्रति संकेत। नवीन सत्य के प्रति मेरे मन का आकर्षण अधिक वास्तविक बनकर नवीन मानवता के रूप में प्रस्फुटित होने लगता है। दूसरे शब्दों में, बाह्य क्रांति के साथ ही मेरा मन अंतःकांति का, नवीन मनुष्यत्व की भावात्मक उपलब्धि का भी आकांक्षी बन जाता है।
“द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे स्रस्त ध्वस्त, हे शुष्क शीर्ण’—में जहाँ पिछली वास्तविकता को बदलने के लिए ओजपूर्ण आवेश है, वहाँ—‘कंकाल जाल जग में फैले फिर नवल रुधिर पल्लव लाली”—में रिक्त डालों को नवीन जीवन-पल्लवों से सौंदर्य-मंडित करने का भी आग्रह है।
“गा, कोकिल, बरसा पावक कण
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन के साथ ही मैंने
“रच मानव के हित नूतन मन...
हो पल्लवित नवल मानवपन”–भी कहा।
यह क्रांति-भावना, जो आगे चलकर साहित्य में प्रगतिवाद के नाम से प्रसिद्ध हुई, मेरी युगांत-कालीन रचनाओं में ‘ताज’ ‘कलरव’ आदि अभिव्यक्त हुई है और मानवतावाद की भावना मेरी ‘मानव’ ‘मधुस्मृति’ आदि रचनाओं में। ‘बापू के प्रति’ शीर्षक उस समय की रचना गाँधीवाद की ओर मेरे झुकाव की द्योतक है, जो ‘युगवाणी’ में भौतिकवाद अध्यात्म-वाद के समन्वय का प्रारंभिक रूप धारण कर लेती है। ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में मेरी क्रांति-भावना मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित ही नहीं होती, उसे आत्मसात् कर प्रभावित करने का भी प्रयत्न करती है :
“भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहाँ आत्मदर्शन अनादि से समासीन, अम्लान!”
‘मुझे स्वप्न दो’ ‘मन के स्वप्न’ ‘आज बनी तुम फिर से पानव’ ‘संस्कृति का प्रश्न’ ‘सांस्कृतिक हृदय’ आदि उस समय की अनेक रचनाएँ मेरी समन्वयात्मक सांस्कृतिक प्रवृत्ति की द्योतक है। ‘युगवाणी’ मेरी सन् 1937-38 की और ‘ग्राम्या’ सन् 40 की रचना है, जब प्रगतिवाद हिंदी साहित्य में घुटनों के बल चलना सीख रहा था। आगे चलकर प्रगतिवाद ने जिस संकीर्ण दृष्टिकोण को अपनाया, उससे अधिकांश हिंदी-लेखक सहमत नहीं हो सके।
कवि या लेखक अपने युग से प्रभावित होता है, साथ ही, वह अपने युग को प्रभावित भी करता है। छायावादी काव्य वास्तव में भारतीय जागरण की चेतना का काव्य रहा है। उसकी एक धारा राष्ट्रीय जागरण से संबद्ध रही है, जिसकी प्रेरणा गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के युद्ध में निहित रही है और दूसरी धारा का संबंध मानसिक-दार्शनिक जागरण की भावनात्मक तथा सौंदर्यबोध-संबंधी प्रक्रियाओं से रहा है, जिसका समारंभ औपनिषदिक विचारों तथा पाश्चात्य साहित्य और संस्कृति के प्रभावों के कारण हुआ।
श्री रामकृष्णदेव के महत् जन्म में, जैसे प्रतीक रूप में, नए भारत ने जन्म लिया था। अनेक शतियों से भारतीय जीवन तथा मानस में जो एक प्रकार का निष्क्रिय औदास्य, वैराग्य तथा कार्पण्य छाया हुआ था, वह जैसे रामकृष्णदेव के शुभ आगमन से तिरोहित हो गया। जिस प्रकार सरोवर के ऊपर का शैवाल हटा देने से नीचे का निर्मल जल दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार मध्ययुगीन जाड्य की सीमाओं तथा कुहासों से मुक्त होकर भारतीय चेतना का उज्ज्वल मुख मनश्चक्षुओं के सामने निखरकर प्रत्यक्ष होने लगा। अनेक पौराणिक व्यक्तित्वों एवं धार्मिक-नैतिक मान्यताओं की भूल-भुलैया में खोया हुआ परंपरागत मानस जैसे नवीन तथा स्वतंत्र रूप से सत्य की खोज करने लगा और उपनिषदों की उन्मेषपूर्ण स्वयंप्रभ मंत्रदृष्टि से प्रेरणा प्राप्तकर नए आलोक-क्षितिजों में विचरण करने लगा। इस भाव मुक्ति के नवोल्लास की प्रथम अभिव्यक्ति, नए युग के भारतीय साहित्य में हमे रवींद्रनाथ की कविता में मिलती है। मानव-जीवन-संबंधी सत्य के पिटे-पिटाए शास्त्रीय दृष्टिकोण से छुटकारा पाकर युग की चेतना जैसे नवीन सौंदर्यबोध तथा आनंद की खोज में नवीन कल्पना के सोपानों पर आरोहण करने लगी। ज्ञान, भक्ति, कर्म, ब्रह्म, विश्व, व्यक्ति आदि संबंधी पथराई हुई एकरस भावनाओं में नवीन प्राणों तथा चेतना का संचार होने लगा। और युग को कला, विशेषतः कविता, नवीन भाव ऐश्वर्य का निःसीम आनंद-स्वर्ग लेकर प्रकट हुई। इस नई चेतना ने अपने मुक्त प्रवाह में हिंदी कविता की भाषा को भी नवीन रूप-माधुर्य प्रदान किया और यह नवीन जागरण की प्रेरणा अपने भाव-वैभव के साथ ही नवीन जीवन संघर्ष भी लाई, जिसने एक ओर भारतीय मानस में विचार-क्रांति पैदा की और दूसरी ओर राजनीतिक क्रांति, जिसने सदियों से पराधीन इस भारतभूमि में स्वतंत्रता के शस्त्रहीन संग्राम को जन्म दिया और मात्र अपने संगठित मन संकल्प से अंत में देश को स्वाधीन भी कर दिया। इस प्रकार भाव ऐश्वर्य के अतिरिक्त हिंदी काव्य-चेतना को एक धारा ने सामूहिक कर्म एवं सामाजिक आदर्शों को प्रेरणा देकर प्रगतिशील दृष्टिकोण से नवीन जीवन-मूल्यों का आकलन तथा सृजन किया। खड़ीबोली जागरण की चेतना थी। द्विवेदी-युग जिस जागरण का आरंभ था, हमारा युग उसके विकास का समारंभ। छायावाद के शिल्प-कक्ष में खड़ीबोली ने धीरे-धीरे सौंदर्यबोध, पद-मार्दव तथा भाव-गौरव प्राप्तकर प्रथम बार काव्योचित भाषा का सिंहासन ग्रहण किया। गद्य में निखार लाने के लिए उसे अभी और भी साधना तथा तपस्या करनी है। हमारी पीढ़ी एक प्रकार से व्यापक अर्थ में जागरण ही की पीढ़ी रही है। हिंदी हम लोगों के लिए मात्र भाषा ही नहीं, एक नई चेतना, नई प्रेरणा का प्रतीक बनकर आई थी। देश में सर्वत्र, सभी क्षेत्रों में नवीन जागरण की लहर दौड़ रही थी, नवीन अभ्युदय के चिह्न उदय हो रहे थे; हमने उस जागरण, उस अभ्युदय को हिंदी ही के रूप में पहचाना था। उसी सर्वतोन्मुखी सशक्त जातीय न की चेतना को वाणी देने के प्रयत्न में हिंदी का भी कंठ फूटा था; उसने अपनी मध्ययुगीन ब्रजभाषा की तुतलाहट ही को नहीं छोड़ दिया था, उसके भीतर एक सबल भावना का सिंधु भी हिलोरे लेने लगा था। इस प्रकार हिंदी हमारे भीतर भाषा के अतिरिक्त एक राष्ट्रीय जागरण, एक सामाजिक प्रेरणा शक्ति के रूप में एक मानवीय सौंदर्यबोध तथा एक नवीन आत्माभिव्यक्ति के रूप में प्रकट हुई थी। ‘छायावादी कविता ने सोयी हुई भारतीय चेतना की गहराइयों में नवीन रागात्मकता की माधुर्य ज्वाला, नवीन जीवन-दृष्टि का सौंदर्यबोध, तथा नवीन विश्व मानवता के स्वप्नों का आलोक उँड़ेला। छायावाद से पहले खड़ीबोली का काव्य भाव तथा भाषा की दृष्टि से निर्धन ही रहा। छायावाद ने उसमें अँगड़ाई लेकर जागते हुए भारतीय चैतन्य का भाव-वैभव भरा। विश्वबोध के व्यापक आयाम, लोकमानव की नवीन आकांक्षाएँ, जीवन-प्रेम से प्रेरित, परिष्कृत ग्रहंता के मासल सौंदर्य का परिधान उसने पहले-पहल हिंदी-कविता को प्रदान किया।
यह सब छायावाद के लिए इसलिए संभव हो सका कि भारतीय पुनर्जागरण विश्व सभ्यता के इतिहास के एक और भी महान् लोक जागरण का अंग बनकर आया था; विश्व-सभ्यता के इतिहास का ही नहीं, वह मानव चेतना की भी एक महान् सांस्कृतिक क्रांति के युग का समारंभ बनकर उदय हुआ था। इसलिए छायावाद में हमे राष्ट्रीय जागरण के मुखर गीतों के अतिरिक्त मानवीय जागरण के गंभीर स्वप्न मौन संवेदन भरे स्वर तथा धरती के जनजागरण के संघर्ष-मुखर, विद्रोह-भरे स्वर भी एक साथ सुनने को मिलते हैं। प्रगतिशील कविता वास्तव में छायावाद की ही एक धारा है। दोनों के स्वरों में जागरण का उदात्त संदेश मिलता है–एक में मानवीय जागरण का, दूसरे में लोक-जागरण का। दोनों की जीवन-दृष्टि में व्यापकता रही है–एक में सत्य के अन्वेषण या जिज्ञासा की, दूसरे में यथार्थ के खोज या बोध की। दोनों ही वैयक्तिक क्षुद्र ग्रहता को अतिक्रम कर प्रवाहित हुई है; एक ऊपर की ओर, दूसरी विस्तृत धरातल की ओर। दोनों ही क्षमतापूर्ण रही है, एक अंतर-गांभीर्य की दूसरी सामाजिक गति की शक्ति से।
छायावाद के रूप-विन्यास में कवींद्र रवींद्र तथा अँग्रेज़ी कवियों का प्रभाव पड़ा। भावना में महात्मा जी के सांस्कृतिक व्यक्तित्व तथा युग संघर्ष की आशा-निराशा का और विचार-दर्शन में विश्ववाद, सर्वात्मवाद तथा विकासवाद का, जो आगे चलकर, धीरे-धीरे अधिक वास्तविक भूमि पर उतरकर, जनभूवाद तथा नवमानववाद में परिणत हो गए। विश्ववाद आदि का प्रभाव छायावादी कवियों ने आरंभ में मुख्यतः कवींद्र रवींद्र तथा अंशतः शेली आदि अँग्रेज़ी कवियों से ग्रहण किया। रवींद्रनाथ का युग, विशिष्ट व्यक्तिवाद तथा व्यक्तित्ववाद का युग था। कवींद्र विश्व भावना तथा लोकमंगल को विशिष्ट मानव-व्यक्तित्व का अंग बनाकर ही अपने साहित्य में दे सके। जन-सामाजिकता तथा सामूहिक व्यक्तित्व की कल्पना उनके युग की विचार-सरणि का अंग नहीं बन सकी थी। यंत्र-युग के मध्यवर्गीय सौंदर्यबोध से उनका काव्य ओतप्रोत है, किंतु यंत्र-युग की जनवादी सौंदर्य-भावना का उदय तब अपने देश के साहित्य में नहीं हो सका था। जनवादी भावना के विपरीत रवींद्र के विचार-दर्शन में यंत्रों के प्रति विरोध की भावना मिलती है, जो मध्ययुगीन भारतीय संस्कृति की प्रतिक्रिया-मात्र है। श्रीकृष्ण चैतन्य एवं वैश्ववाद उनकी रचनाओं में आधुनिक रूप धारणकर सर्वात्मवाद बनकर निखरे हैं। सांस्कृतिक धरातल पर उन्होंने वसुधैव कुटुंबकम् की भारतीय भावना का समन्वय मनोविज्ञान, विकासवाद तथा नृतत्वशास्त्र की दिशा में किया है।
कवींद्र महान् प्रतिभा से संपन्न होकर आए थे। उन्होंने अपने युग के जागरण की समस्त शक्तियों का मनन कर उनके प्राणप्रद तथा स्वास्थ्यकर सार-तत्वों का संग्रह अपने अंतर में कर लिया था, और अनेक छंदों, तालों तथा लयों मे अपनी मर्मस्पर्शी वाणी को नित्य नवीन रूप देकर रूढ़िग्रस्त भारतीय चेतन को अपने स्वर के तीव्र-मधुर आघातों से जाग्रत्, विमुक्त तथा विमुग्ध कर उसे एक नवीन आकांक्षा के सौंदर्य तथा नवीन आशा के स्वप्नों से मंडित कर दिया था। भारतीय अध्यात्म के प्रकाश को उन्होंने पश्चिम के यंत्र-युग के सौंदर्य से मंडित कर उसे पूर्व तथा पश्चिम दोनों के लिए समान रूप से आकर्षक बना दिया था। इस प्रकार नवीन युग की आत्मा के अनुकूल स्वर-झंकृति प्रस्तुत कर कवींद्र रवींद्र ने एक नवीन सौंदर्यबोध का झरोखा भी कल्पनाशील युवक साहित्यकारों के हृदय में खोल दिया था।
इन्हीं आध्यात्मिक, सांस्कृतिक तथा सौंदर्यबोध संबंधी भावनाओं से हिंदी में छायावादी युग के कवि भी प्रभावित हुए, किंतु उनके युग की पृष्ठभूमि जैसे-जैसे बदलती गई उनके काव्य पदार्थ का भी उसी अनुपात में रूपांतर होता गया। वे सूक्ष्म से स्थूल की ओर, आध्यात्मिकता से भौतिकता की ओर, भाव से वस्तु की ओर, सर्वात्मवाद आदि से भूवाद, जनवाद, मानवतावाद की ओर अग्रसर होते गए। कुछ ने लेखन स्थगित कर दिया, किंतु अधिकांश लेखकों को विचारों की दृष्टि से, युग की पृष्ठभूमि ने किसी न किसी रूप तथा परिमाण में अवश्य प्रभावित किया है। सत्य की खोज में उड़ती हुई अस्पष्ट अभीप्सा युगपरिवेश, सामाजिक वातावरण तथा वैयक्तिक सामूहिक परिस्थितियों से प्रभावित एवं घनीभूत होकर वास्तविकता को भूमि पर विचरण करने लगी। छायावादी कविता केवल रवींद्र-काव्य को प्रतिध्वनि ही नहीं रही, उसने अपने युग-जीवन की शक्तियों से स्वतंत्र रूप से प्रेरणा ग्रहण की।
छायावाद का विकास प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्यवर्ती काल में हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रायः सर्वत्र ही युग की वास्तविकता के प्रति मनुष्य की धारणा बदल गई। छायावाद ने जो नवीन सौंदर्यबोध, जो आशा-आकांक्षा का वैभव, जो विचार-सामंजस्य तथा समन्वय प्रदान किया था वह पूँजीवादी युग की विकसित परिस्थितियों की वास्तविकता पर आधारित था। मानव चेतना तब युग की बदलती हुई कठोर वास्तविकता के निकट संपर्क में नहीं आ सकी थी। उसकी समन्वय तथा सामंजस्य की भावना केवल मनोभूमि पर ही प्रतिष्ठित थी। किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वह सर्वधर्म समन्वय, सांस्कृतिक समन्वय, ससीम-असीम तथा इहलोक-परलोक संबंधी समन्वय की अमूर्त भावना अपर्याप्त लगने लगी, जिससे छायावाद ने आरंभिक प्रेरणा ग्रहण की थी। अनेक कवि तथा कलाकारों की सृजन-कल्पना इस प्रकार के कोरे मानसिक समाधानों से विरक्त होकर अधिक वास्तविक तथा भौतिक धरातल पर उतर आई और मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित होकर प्रगतिवाद के नाम से एक नवीन काव्य-चेतना को जन्म देने में संलग्न हो गई। जिस प्रकार मार्क्स के भौतिकवाद ने अर्थनीति तथा राजनीति संबंधी दृष्टिकोणों को प्रभावित किया उसी प्रकार फ़्रायड, युग आदि पश्चिम के मनोविश्लेषकों ने रागवृत्ति संबंधी नैतिक दृष्टिकोण में एक महान् क्रांति उपस्थित कर दी। फलतः छायावादी युग के सूक्ष्म आध्यात्मिक तथा नैतिक विश्वासों के प्रति संदिग्ध होकर तथा पश्चिम की भौतिक तथा जैवी विचारधाराओं से अधिक कम मात्राओं में प्रभावित होकर अनेक प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, प्रतीकवादी कलाकार अपने हृदय के विक्षोभ तथा कुंठित आशा-आकांक्षागओं को अभिव्यक्ति देने के लिए संक्रांतिकाल की बदलती हुई वास्तविकता से प्रेरणा ग्रहण करने लगे।
सामूहिकता एवं सामाजिकता को प्रधानता देकर व्यक्ति के कल्याण का पथ किस प्रकार प्रशस्त तथा उन्मुक्त किया जा सकता है, यह समस्या छायावाद के द्वितीय चरण के सम्मुख उपस्थित हुई, जिसकी मर्मराहट हमें विद्रोह-भरे अनगढ़ प्रगतिवाद के कवियों में मिलती है। प्रगतिवाद का जीवन दर्शन भावप्रधान तथा वैयक्तिक न रहकर, धीरे-धीरे, वस्तुप्रधान तथा सामाजिक हो गया, किंतु इतने व्यापक तथा मौलिक परिवर्तन को प्रगतिवाद ठीक-ठीक समझ सका और अपनी वाणी से सामूहिक विकास की भावना को ठीक पथ पर अग्रसर कर सका, ऐसा कहना अनुचित होगा। काव्य की दृष्टि से उसका सौंदर्यबोध पूँजीवादी तथा मध्यवर्गीय भावना की प्रतिक्रियाओं से पीड़ित रहा। उसका भावोद्वेग किसी जनवादी यथार्थ तथा जीवन-सौंदर्य को वाणी देने के बदले केवल धनपतियों तथा मध्यवृत्ति वालो के प्रति विद्वेष और विक्षोभ उगलता रहा। नवीन लोक मानवता की गंभीर सशक्त चेतना के जागरण-गान के स्थान पर नंगे-भूखे श्रमिक कृषकों के अस्थि-पंजरों के प्रति मध्यवर्ग के आत्मकुंठित बुद्धिवादियों की मानसिक प्रतिक्रियाओं का हुंकार भरा क्रंदन ही अधिक सुनाई पड़ने लगा। विचार-दर्शन की दृष्टि से, वह नवीन जन-भावना को अभिव्यक्ति न दे सकने के कारण केवल तात्कालिक परिस्थितियों के कोरे राजनीतिक नारों को बार-बार दुहराकर उनका पिष्टपेषण-मात्र करता रहा। समीक्षा की दृष्टि से अधिकांश प्रगतिवादी आलोचक साहित्य-चेतना के सरोवर तट पर राजनीतिक प्रचार का झंडा गाड़े, ऊपर ही ऊपर हाथ-पाँव मारकर, काई-सने झागों में तैरने वा सुख लूटते रहे हैं और छिछले स्थलों से कीचड़ उछालते हुए काव्य की आत्मा को ढककर तथा उसकी रीढ़ को तोड़-मरोड़ कर नवदीक्षितों को दिग्भ्रांत-भर करते रहे हैं।
छायावाद का आरंभिक अस्पष्ट अध्यात्मवादी दृष्टिकोण प्रगतिवाद में धूमिल भौतिकवाद तथा वस्तुवाद बनने का प्रयत्न करने लगा। जिस प्रकार छायावादियों में भागवत या विराट् चेतना के प्रति एक क्षीण दुर्बल आग्रह, आकुलता तथा बौद्धिक जिज्ञासा की भावना रही है, उसी प्रकार तथाकथित प्रगतिवादियों में जनता तथा जन-जीवन के प्रति एक निर्जीव संवेदना तथा निर्बल ललक का भाव दुराग्रह की सीमा तक परिलक्षित होने लगा। दोनों ही के मन में सम्यक् साधना, अभीप्सा तथा बोध की कमी के कारण अपने इष्ट या लक्ष्य की रूपरेखा तथा धारणा निश्चित नहीं बन पाई। एक भीतरी कुहासे में लिपटे रहे, दूसरे बाहरी से घिरे रहे। कला की दृष्टि से प्रगतिवाद के सफल कवि छायावादी शब्दों की रेशमी रंगीनी एवं उपमाओं की अभिनव सुंदरता का सजीव प्रयोग कर सके। छंदों की दृष्टि से संभवतः उन्होंने अपनी लयहीन भावनाओं तथा क्रुद्ध उद्गारों के लिए मुक्तछंद के रूप में पंक्तिबद्ध गद्य को अपनाना उचित समझा, जिसका प्रवाह उनके बहिर्मुख दृष्टिकोण के अनुरूप ही असंबद्ध, बिखरा तथा ऊबड़-खाबड़ रहा। अपने निम्न स्तर पर प्रगतिवाद में सुरुचि संस्कारिता का स्थान विकृत तथा कुत्सित ने ले लिया। छायावादी भावना का उदार वैचित्र्य सिमटकर उसमें अत्यंत संकीर्ण मतवाद में बदल गया। किंतु फिर भी प्रगतिवादियों ने किसी प्रकार अपने गिरत-पड़ते पर मिट्टी की गर्द-ग़ुबार-भरी व्यापक वास्तविकता की ओर उठाए।
प्रगतिवाद के अतिरिक्त छायावादी काव्य-भावना ने एक और की पगडंडी पकड़ी, जो, पीछे, स्वतंत्ररूप धारण करने पर प्रयोगवादी कविता कहलाई। जिस प्रकार प्रगतिवादी काव्य-धारा मार्क्सवाद एवं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नाम पर अनेक प्रकार के सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक तर्क वितर्कों में फँसकर एक किमाकार यांत्रिक सामूहिकता की ओर बढ़ी, उसी प्रकार प्रयोगवाद की निर्झरिणी कलकल-छलछल करती हुई, फ़्रायडवाद से प्रभावित होकर, स्वर संगतिहीन भावना-लहरियों में मुखरित, अवचेतन की रुद्ध ग्रंथियों को मुक्त करती हुई एवं दमित-कुंठित आकांक्षा को वाणी देती हुई, लोकचेतना के स्रोत में द्वीप की तरह प्रकट होकर अपने पृथक् अस्तित्व पर अडिग जमी रही। छायावादी भावना की सूक्ष्मता इसमें टेकनीक की सूक्ष्मता बन गई, छायावादी शब्द वैचित्र्य इसमें उक्ति-वैचित्र्य और उसके शाश्वत दृष्टिकोण का स्थायित्व क्षणिक का उद्दीपन बन गया। अपनी रागात्मक विकृतियों तथा संदेहवादिता के कारण इसको सौंदर्य-भावना अपने निम्न स्तर पर केचुओं-घोघों के सरीसप जगत् से अनुप्राणित रही, जो वास्तव में पश्चिम की आधुनिकतम ह्रासोन्मुखी संस्कृति तथा साहित्य का प्रभाव है। इस प्रकार छायावाद के अंतर्गत उसकी जीवन-सौंदर्यवादी काव्यधारा आज अपनी अतिवैयक्तिक उपचेतन-ग्रस्त भावना, आत्मदया-पीड़ित अहता तथा रूपकारिता एवं साज-सँवार संबंधी अतिआग्रह के कारण प्रयोगवाद के रूप में विकीर्ण हो रही है। उसमें अब वह मानववादी व्यापकता, उदात्तता, वह अंतःस्पर्शी अंतर्भेदी दृष्टि की गहराई, वह लोकोभ्युदय की अभीप्सा तथा जागरण के संदेश का प्रकाश नहीं देखने को मिलता। उसमें उर्दू शिल्प और दर्शन शायरी की सी बारीकियों, रीतिकालीन स्वरैक्यपूर्ण चित्रणों, अत्युक्तियों, भेदोपभेदों की विचित्रताओं तथा सस्ती अहंजन्य अपसाधारणताओं के कारण सभी ओर से ह्रास के चिह्न प्रकट होने लगे हैं।
नई कविता इन दोषों से कुछ हद तक अपने को मुक्त कर सकी है, पर वह अधिकतर ‘कला के लिए कला’ वाले सौंदर्यवादी सिद्धांत की प्रतिध्वनि-मात्र रह गई है। इस समय उसका सर्वाधिक आग्रह रूपविधान एवं शिल्प के प्रति प्रतीत होता है। भाव-पक्ष को वह वैयक्तिक निधि या संपत्ति मानती है। भावना की उदात्तता, सार्वजनिक उपयोगिता एवं अर्थगांभीर्य की ओर वह अधिक आकृष्ट नहीं। भावों एवं मान्यताओं की दृष्टि से वह अभी अपरिपक्व, अनुभवहीन तथा अमूर्त ही है। वह अपने चारों ओर की परिस्थितियों के अँधेरे तथा मानसिकता के कुहासे में कुछ टटोल-भर रही है। सत्य से अधिक उसकी आस्था क्षण के बदलते हुए यथार्थ ही में है और टटोलने के ही भावुक सुख-दुखभरे प्रयत्न को वह अधिक महत्त्व देती है। लक्ष्य से अधिक मूल्य वह लक्ष्य के अनुसंधान की व्यथा को देती है। इसी से उसके मानस में रस का सँवार होता है, जो उसकी किशोर प्रवृत्ति है। ऐसा भाव या वस्तु- सत्य, जिसका मानव-जीवन के कल्याण के लिए उपयोग हो सके, उसे नहीं रुचता। वह उसकी काव्यगत मान्यताओं के भीतर समा भी नहीं सकता।–वह तो साधारणीकरण की ओर बढ़ना हुआ। उसे विशेषीकरण से मोह है। वह प्रतीकों, बिंबों, शैलियों और विधाओं को जन्म दे रही है, वह अतिवैयक्तिक रुचियों की तथ्यशून्य तथा आत्ममुग्ध कविता है। आज जो एक सर्वदेशीय संस्कृति, विश्वमानवता आदि का प्रश्न साहित्य के सम्मुख है, उसकी और उसका रुझान नहीं। उसकी मानवता वैयक्तिक और कुछ अर्थों में प्रतिवैयक्तिक मानवता है। सामाजिक दृष्टि से वह समाजीकरण के विरोध में आत्मरक्षा तथा व्यक्तिगत अधिकारी के प्रति सचेष्ट तथा सन्निद्ध मानवता है।
छंदों की दृष्टि से नई कविता ने किसी प्रकार के महत्त्वपूर्ण मौलिक प्रयोग नहीं किए हैं। अधिकतर छंदों का अंचल छोड़कर तथा शब्दलय को न सँभाल सकने के कारण वह अर्यलय अथवा भावलय की खोज में लयहीन, स्वरसंगतिहीन गद्यबद्ध पंक्तियों को काव्य के लिबास में उपस्थित कर रही है, जो बहुधा भावाभिव्यक्ति को सहायता पहुँचाने में असमर्थ प्रतीत होती है। रूप और भावपक्ष को अपरिपक्वता के कारण अथवा तत्संबंधी दुर्बलता को छिपाने के लिए वह शैलीगत शिल्प को ही अधिक महत्त्व देती है और व्यक्तिगत होने के कारण शैली एक ऐसी वस्तु है कि उसकी दुहाई देकर कृतिकार कुछ अंशों तक सदैव अपनी रक्षा कर सकता है।
छायावाद ने हिंदी-छंदों की प्रचलित प्रणाली को आमूल बदल दिया था। आमूल शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ कि छायावादी कवियों ने छंदों में मात्राओं से अधिक महत्त्व उनके प्रसार तथा स्वर-संगति को दिया। उन्होंने कई प्रचलित छंदों को अपनाते हुए भी, उनके पिटे-पिटाए यति-गति में बँधे रूप को स्वीकार न कर, उनमें प्रसार की दृष्टि से नए प्रयोग कर दिखाए। स्वर संगीत का भी उनकी कविताओं में अद्भुत चमत्कार मिलता है। इन कारणों से छंद उनके हाथों से बिल्कुल नए होकर निखरे। वैसे एक ही रचना में कम-अधिक मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग कर उन्होंने गति तथा लय-वैचित्र्य की सृष्टि तो की ही–जिसे आज नए कवि भी महत्त्व देते हैं–पर उससे भी अधिक छंद-सृष्टि को उनकी देन रही है, स्वर संगीत संबंधी वैचित्र्य की। मात्रिक तथा लय छंदों के अतिरिक्त छायावाद-युग में आलापोचित, अक्षर-मात्रिक मुक्त छंदों का भी बहुतायत से प्रयोग हुआ है। आधुनिकतम कविता में, मुक्त छंदों में, प्रायः अधिक बिखराव आ जाने के कारण वे गद्यवत् तथा विश्वखल लगते। छंदों के अतिरिक्त छायावाद-युग में अलंकरण संबंधी रूढ़िगत दृष्टिकोण में भी भारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। उपमा रूपक आदि के रहते हुए भी उनकी रीतिकालीन एक-स्वरता तथा द्विवेदी-युगीन समस्वरता में नवीन सौंदर्य के लक्षण प्रकट हुए और शब्दाल कार केवल प्रसाधन तथा सामंजस्य द्योतक उपकरण न रहकर, भावों की अभिव्यक्ति में घुल-मिलकर, उसके अनिवार्य अंग हो गए, तथा अधिक मार्मिक एवं परिपूर्ण होकर नवीन सौंदर्य के प्रतीक बन गए। सौंदर्यबोध––जो रूपविधान और भावबोध दोनों का प्रतिनिधित्व करता है––वह, जैसे, छायावादी युग की सर्वोपरि देन है, जिसने हमारे रूढ़ि-रीतियों के ढाँचे में बँधे हुए इतिवृत्तात्मक जीवन के विवर्ण मुख से विषाद की निष्प्रभ छाया उठाकर उस पर नवीन मोहिनी डाल दी।
छायावादी काव्यचेतना का संघर्ष मुख्यतः मध्ययुगीन निर्मम, निर्जीव जीवन-परिपाटियों से था जो, कुरूप छाया तथा घिनौनी काई की तरह युग-मानस के दर्पण पर छाई हुई थी और क्षुद्र जटिल नैतिक सांप्रदायिकता के रूप में प्रकाश-लता की तरह लिपटकर मन में आतंक जमाए हुए थी। दूसरा संघर्ष छायावादी चेतना का था, उपनिषदों के दर्शन के पुनर्जागरण के युग में उनका ठीक-ठीक अभिप्राय ग्रहण करने का। ब्रह्म, आत्मा, प्राण, विद्या, अविद्या, शाश्वत, अनंत, क्षर, अक्षर, सत्य आदि मूल्यों एवं प्रतीकों का अर्थ समझकर, उन्हें युग-मानस का उपयोगी अंग बनाना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उनके बाहरी विरोधों को सुलझाकर उनमें सामंजस्य बिठाना–ये सब अत्यंत गंभीर और आवश्यक समस्याएँ थीं, जिनकी भूलभुलैया से बाहर निकल, कृतिकार को, मुक्त रूप से सृजन कर तथा सदियों से निष्क्रिय, विषण्ण एवं जीवन-विमुख लोक-मानस को आशा, सौंदर्य, जीवन, प्रेम, श्रद्धा, आस्था आदि का भाव-काव्य देकर, उसमें नया प्रकाश उड़ेलना था। छायावाद मुख्यतः प्रेरणा का काव्य रहा और इसीलिए वह कल्पना प्रधान भी रहा। कल्पना का, पलायन से भिन्न, उच्च अर्थ में प्रयोग छायावादी काव्य में ही हो सका है। वह भीतर की वास्तविकता से उलझा रहा। उसने व्यक्तिगत रुचि विमूढ़ मानव-भावनाओं को वाणी न देकर युग के व्यक्तित्व तथा व्यापक मनुष्यत्व का निर्माण करने का प्रयत्न किया।
छायावादी छंदों में आत्मान्वेषण की शांत, स्निग्ध अंत स्वरसंगति है, जो अपने दुर्बल क्षणों में प्रेरणाशून्य, कोरा कोमल पद-लालित्य बनकर रह जाती है। प्रगतिवादी छंदों में सामूहिक आंदोलन का जागरण कोलाहल तथा स्पंदन कंपन है, जो अधिकतर खोखली हुँकार तथा तर्जन-गर्जन बनकर रह जाता है। प्रयोगवादी छंदों में नींद भरी करुण स्वप्न-मर्मर है, जो प्रायः आत्मदया एवं आत्मव्यथा में द्रवित होकर भावुक उच्छवासों की निरर्थक सिसकियों में डूब जाता है। छायावादी प्रेमकाव्य सौंदर्य-भावना प्रधान है, प्रयोगवादी प्रणय-काव्य राग-मूलक। अपने स्वस्थ रूप में छायावाद एक नवीन अध्यात्म को वाणी देने का प्रयत्न करता रहा है, प्रगतिवाद एक नवीन वास्तविकता को तथा प्रयोगवाद सामूहिक साधारणता के विरोध में व्यक्ति के सूक्ष्म-गहन वैचित्र्य से भरी अहंता तथा रुग्ण कुंठा को। काव्य की ये तीनों धाराएँ आज की युगचेतना के ऊर्ध्व, व्यापक, गहन सचरणों को अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रही हैं, और तीनों अभिन्न रूप से संपृक्त है।
मैंने प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को छायावाद की उपशाखाओं के रूप में इसलिए माना है कि मूलतः ये तीनों धाराएँ एक ही युग-चेतना अथवा युग-सत्य से अनुप्राणित हुई है। उनके रूपविधान तथा भावना-सौष्ठव में कोई विशेष अंतर नहीं और विचार-दर्शन में भी वे भविष्य में एक-दूसरे के निकट आ जाएँगी। ये तीनों धाराएँ एक-दूसरे की पूरक है। आज के संघर्षनिरत विकासकामी युग में हम मानव जीवन में एक नवीन संतुलन चाहते हैं, अपने वैयक्तिक और सामाजिक धारणाओं में नवीन समन्वय चाहते हैं, अपने भीतर के सत्य और बाहर के यथार्थ को परस्पर सन्निकट लाना चाहते हैं, अपनी रागात्मक वृत्ति (प्रेय) तथा लोक-जीवन के प्रति अपने उत्तरदायित्व (श्रेय) में नया सामंजस्य चाहते हैं। हमारी यही मूलगत आकाक्षाएँ आज हमारे साहित्य में विभिन्न अनुरंजनाओं तथा प्रतिरंजनाओं के साथ अभिव्यक्ति पा रही है। इस प्रकार जिस काव्य-संचरण का समारंभ अपने विशिष्ट भावनात्मक दृष्टिकोण तथा अमूर्त रूप शिल्प के कारण छायावाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसकी मैं भविष्य में अनेक रूपों में नवीन संभावनाएँ देखता हूँ। वह हमारे विकासशील युग की भाव, विचार तथा सौंदर्य-संपदा को और विकसित मानव-मूल्यों के बहिरंतर के वैभव को पूर्णतम अभिव्यक्ति देने में सफल तथा समर्थ हो सकेगा।
अपने युग के काव्य-साहित्य की पृष्ठभूमि का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराना इसलिए आवश्यक हो गया कि मैं आपके सम्मुख यह स्पष्ट कर सकूँ कि मेरी काव्यरुचि या संस्कार का निर्माण करने में किन शक्तियों का हाथ रहा तथा मेरी काव्यसंबंधी मान्यताओं को किस सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक जागरण की व्यापक चेतना ने प्रेरित एवं प्रभावित किया। मेरी प्रिय-अप्रिय को भावना व्यक्तिगत रुचि से वंचित न रहकर जीवन-मान्यताओं-संबंधी दृष्टिकोण से ही परिचालित रही है। सामाजिक-ऐतिहासिक दर्शन के अध्ययन के फलस्वरूप मेरा जीवन दृष्टिकोण आमूल परिवर्तित नहीं हो गया था, जैसा कि मेरे आलोचकों को तब प्रतीत हुआ– मेरी जीवनदृष्टि अधिक व्यापक हो गई। अर्थात्, आदर्श के अंतर्मुख चिंतन के साथ मेरे मन ने यथार्थ के बहिर्मुख आग्रह को भी स्वीकार कर लिया। जीवनादर्श के प्रति मेरा प्रेम वैसा ही बना रहा, किंतु उसकी प्राप्ति के लिए, उसके विकास के अंग के रूप में–वस्तुजगत् के संघर्ष को भी मेरा मन समझने लगा, तथा उसकी यथार्थता को भी महत्त्व देने लगा। किंतु यह सब होने पर भी आदर्श तथा यथार्थ के बीच व्यवधान मेरे भीतर बना ही रहा। मेरी चेतना तब इतनी विकसित, सशक्त एवं परिपक्व नहीं हो सकी थी कि वह आदर्श और यथार्थ को एक ही मानवसत्य के समग्र सत्य के–परस्पर पूरक अंगों के रूप में देख सके अथवा ग्रहण कर सके।
अब मैं अपनी काव्य-चेतना के विकास के एक अत्यंत आवश्यक मोड़ या स्थिति के बारे में कहने जा रहा हूँ, जहाँ से ‘स्वर्णकिरण युग का आरंभ होता है, जिसे आप मेरे चेतना-काव्य का युग भी कह सकते हैं। यह ‘ग्राम्या’ से पाँच वर्ष के बाद का समय है। इस बीच मेरे मन में ‘ज्योत्स्ना’ और ‘ग्राम्या’ की चेतनाओं का आदर्श और यथार्थ की चिंतन-धाराओं का संघर्ष तथा मंथन चलता रहा। और इसी का परिपाक ‘स्वर्णकिरण’ को विकसित जीवन चेतना के रूप में हुआ जिसको मैंने अपनी ‘स्वर्णोदय’ नामक रचना में तथा ‘वाणी’ की ‘म’ शीर्षक रचना में अधिक परिपक्व रूप में अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है।
‘स्वर्णकिरण’ में मैंने मानवता के व्यापक सांस्कृतिक समन्वय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है–
“भू रचना का भूतिपाद युग हुआ विश्व इतिहास में उदित,
सहिष्णुता सद्भाव शांति से हो गत संस्कृति धर्म समन्वित।
वृथा पूर्व पश्चिम का दिग्भ्रम मानवता को करे न खंडित
बहिर्नयन विज्ञान हो महत् अंतर्दृष्टि ज्ञान से योजित!
सस्मित होगा धरती का मुख जोवन के गृह प्रागण शोभन,
जगती की कुत्सित कुरूपता सुषमित होगी, कुसुमित दिशि क्षण!
विस्तृत होगा जन मन का पथ, शेष जठर का कटु सघर्षण,
संस्कृति के सोपान पर अमर सतत बढ़ेंगे मनुज के चरण!”
‘वाणी’ में मैंने मानव-जीवन के प्रति विगत युगों के सीमित दष्टिकोण को अतिक्रम कर नवीन जीवन-चेतना के धरातल पर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है :
“नव मानवता को नि संशय होना रे अब अंत केंद्रित
जन भू स्वर्ग नही युग सभव बाह्य साधनों पर अवलंबित।
वैयक्तिक सामूहिक गति के दुस्तर द्वंद्वों में जग खंडित
ओ अमृत जन, भीतर देखो, समाधान भीतर, यह निश्चित!
‘आज विशेषीकरण, समाजीकरण साथ चल रहे धरा पर,
महत् धैर्य से गढ़ने सबको मन के मंदिर, जीवन के घर!
यह दीक्षा का युग न कला में –बृहत् लोक शुभ से हो प्रेरित,
भू रचना के स्वर्णिम युग के कला शिल्प स्वर शब्द हो अमित।’
‘भू पर संस्कृत इंद्रिय जीवन मानव आत्मा को रे अभिमत
ईश्वर को प्रिय नही विरागी, संन्यासी, जीवन से उपरंत।
आत्मा को प्राणों से बिलगा अधिदर्शन ने की जग की क्षति
ईश्वर के सँग विचरे मानव भू पर, अन्य न जीवन परिणति।”
अपने इस नवीन काव्य-सचरण में मैंने मध्ययुगीन आध्यात्मिकता तथा आदर्शवाद की चेतना को नवीन लोकचेतना का स्वरूप देने का प्रयत्न कर उसकी निष्क्रियता को सक्रियता प्रदान करने की, उसकी वैयक्तिकता को उन्नत सामाजिकता में परिणत करने की चेप्टा की है। मैंने आदर्शवाद तथा वस्तुवाद के विरोधों को नवीन मानव चेतना के समन्वय में ढालने का प्रयत्न किया है और भौतिक-आध्यात्मिक प्रतिरंजनाओं का विरोध कर, भौतिकता-आध्यात्मिकता को एक ही सत्य के दो पहलुओं के रूप में ग्रहण कर, उन्हें लोककल्याण के लिए महत्तर सांस्कृतिक समन्वय में, एक-दूसरे के पूरक के रूप में संयोजित करना चाहा है। अपने नवीन प्रगीतों में मैंने मनुष्य के लिए नवीन सांस्कृतिक ‘हृदय को जन्म देने की आवश्यकता बतलाई है और उसे नवीन रागात्मक संवेदनों तथा नवीन प्रकाश के स्पर्शों से अनुप्राणित करने का प्रयास किया है।
‘स्वर्णकिरण’ और उसके बाद की मेरी काव्य-दृष्टि को मेरे आलोचकों ने समन्वयवादी जीवनदर्शन कहकर संतोष कर लिया है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि उसके पुष्कल चैतन्य की उन्होंने जान-बूझकर उपेक्षा की है। नहीं, उसकी ओर उन्होंने संभवतः यथेष्ट ध्यान नहीं दिया है और उसे समझने की प्रेरणा का भी अभी उदय नहीं हुआ है। इसका एक कारण, और संभवतः मुख्य कारण, यह है कि वर्तमान सांस्कृतिक ह्रास तथा राजनीतिक उत्थान-पतन के युग में मानव चेतना और विशेषत बुद्धिजीवियों एवं कलाकारों का भावप्रवण संवेदनशील हृदय, प्राणिक जीवन-वृत्तियों के उच्छ्वासों तथा भावनाओं के उपचेतन स्तरों में ऐसा उलझ गया है कि उन गुहायों के घने अंधकार को नवीन चैतन्य के स्वर्णिम प्रकाश से विगलित होने में समय लगेगा। संभवतः समय आने पर ‘स्वर्णकिरण’ के युग की मेरी रचनाएँ जिनमें मेरी इधर की सभी रचनाएँ सम्मिलित हैं—पाठकों एवं आलोचकों का ध्यान अधिक आकृष्ट कर सकेगी और उनके लिए अधिक न्याय हो सकेगा; मैं उनके संबंध में केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि उनमें केवल समन्वयवादी या अध्यात्मवादी बौद्धिक दर्शन ही नहीं हैं उनमें मेरी समस्त जीवन अनुभूतियों का तथा ग्राम्या’ की हरीतिमा का भी निचोड़ है। उनमें जीवन-सौंदर्य के परिधान में मूर्त, नवीन जीवंत मानव-चैतन्य भी है, जिसको अधिक पूर्ण अभिव्यक्ति ‘वाणी’ के अंतर्गत मेरी आत्मिका शीर्षक रचना में मिल सकी है।
नई चेतना के बारे में उसमें मैंने इस प्रकार कहा है–
“कोटि सूर्य जलते रे उज्ज्वल उस माखन पर्वत के भीतर
मनुष्यत्व नव बहिर्दीप्त वह अंत:संस्कृत, आत्म मनोहर!
लोक प्रेम वह, मनुज हृदय वह, इंद्रिय मन जिसमें योज
अणु विनाश को अतिक्रम कर वह निज रचना प्रियता में जीवित।”
यह एक इतना विराट् तथा विश्वव्यापी चेतनात्मक क्रांति का युग है कि मानव-मन उसके महत्त्व को भी पूर्णतः ग्रहण नहीं कर पाया है–यह महत् अंत क्रांति, जो मानव-जीवन में एक महान् परिवर्तन तथा रूपांतर उपस्थित कर सकेगी, अभी केवल विकास के पथ में हैं,–मैंने ‘उत्तरा’ के गीतों में इस ओर संकेत किया है–उसका सूक्ष्म सांस्कृतिक ऐश्वर्य, मनोवैभव तथा जीवन-सौंदर्य अभी संपूर्णतः प्रस्फुटित होकर मनुष्य के भीतर नहीं अवतरित हो सका है।
आज के युग में कविता को केवल वादों, बौद्धिक दर्शनों, सामूहिक नारों, अवचेतन के वैचित्र्य-भरे, अपरूप उच्छ्वासों एवं उद्गारों के रूप ही में देखना उसके प्रति अन्याय करना है। जुगनुओं की पंक्तियों की भाँति मानव-मन की विषण्ण गहराइयों में जगमगाती हुई, रीढ़हीन, फूल-पत्तियों को बेलों की तरह धरती से चिपकी हुई या बेलबूटों की तरह कढ़ी हुई सतरे और जिस तथ्य को भी वाणी देती हों, वे निश्चय ही नए युग के नए मानव-चैतन्य अथवा नए मानव-सत्य को अभिव्यक्त नहीं करती, इसमें मुझे रत्ती भर संदेह नहीं। संभवतः यह कविता के विश्राम ग्रहण करने का समय है। नया मानव-चैतन्य अंतर्मुखी होकर अपने लिए, नवीन भावभूमि, नवीन सौंदर्य-वाणी, नवीन माधुर्य रस तथा नवीन इंद्रिय आनंद का स्पर्श खोज रहा है।
यह हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि हमने इस विराट् युग में जन्म लेकर, साहित्य के क्षेत्र में, इन नव नवोन्मेषिणी भाव-शक्तियों को धारण तथा वहन करने का गौरव प्राप्त किया है। स्वर्ग से नरक तक के स्तर आज के युग में आंदोलित हो उठे हैं। मानव जाति की सर्वोच्च मान्यताओं के शिखर तथा निश्चेतन मन के अंधकार भरे गह्वर आज नवीन आलोक की रेखाओं तथा नवीन प्राणी के स्पर्श से उन्मीलित हो रहे हैं। आज हम देश, जाति, वर्ग आदि सब की सम्मिलित संश्लिष्ट इकाई को विश्व-जीवन में, नवीन मानवता के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयत्नों में संलग्न हैं। मेरे युग को जो काव्य-चेतना राष्ट्रीय जागरण के बाह्य प्रभावों से जागृत होकर, पश्चिमी सभ्यता तथा संस्कृति के स्पर्शों से सौंदर्यबोध ग्रहण कर, भारतीय चैतन्य के अभिनव आलोक से अनुप्राणित होकर, क्रमशः प्रस्फुटित एवं विकसित हुई थी, आज वह अनेक भावनाओं तथा विचारों के धरातलों को पार कर, मानव-मन की गहनतम तलहटियों तथा उच्चतम शिखरों के छाया प्रकाश का समावेश करती हुई, अधिक प्रौढ़ एवं अनुभव-पक्व होकर, मानव जीवन के मंगलमय उन्नयन एवं मानव जाति से परस्पर सम्मिलन के स्वर्ग के निर्माण में अविरत रूप से साधना रत है। आज की काव्य-चेतना अनेक युगों को पार कर नवीन युग में प्रवेश कर रही है। यह उसके लिए अत्यंत संकट तथा संघर्ष का युग है। आज स्वप्न और वास्तविकता, सत्य और यथार्थ एक- दूसरे के विरोध में खड़े, एक अधिक व्यापक एव समुन्नत जीवन-सत्य की चरितार्थता में संयोजित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आज मानव क्षमता तथा मानव दुर्बलता एक दूसरे को चुनौती दे रही है। आज धरा-सृजन और विश्व-संहार आमने-सामने खड़े ताल ठोक रहे हैं।
इन्हीं विचारों तथा भावनाओं को मैंने अपने इधर के काव्य में इस प्रकार वाणी दी है :
‘भूखंडों में भग्न, विभाजित बहिर्मुखी युग मानव का मन,
स्थापित स्वार्थों से शत खंडित मानव आत्मा का हत प्रांगण!
देश खंड से भू मानव का परिचय देने का क्या क्षण यह?–
मानवता में देश जाति लीन, नए युग का सत्याग्रह!’
‘व्यक्ति विश्व के संघर्षण से निखर उठा मन में नव मानव
जो विकास पथ में अब भूपर अंतर में अक्षय वैभव!
जन्म पीढ़ियों में ले नव-नव मर्त्य अमर को होना विकसित,
भू जीवन मन को अतिक्रम कर स्वर्ग धरा पर रचना जीवित!
‘जन भू पर निर्मित करना नव जीवन बहिरंतर संयोजित,
मनुज धरा को छोड़ कहीं भी स्वर्ग नहीं संभव, यह निश्चित!”
ऐसी महान् सम्भावनाओं और घोर दु:खों संभावनाओं के युग में कवि एवं कलाकार को अपने अंतर्विश्वास के शिखर पर अविचल खड़ा रहकर, मानव-अंतश्चैतन्य से प्रकाश ग्रहणकर, स्वप्न और कल्पना के ही उपादानों से सही, महत्तम मानव-भविष्य का निर्माण करना है : और धरती के मानस को–पिछली मान्यताओं एवं परिस्थितियों का कल्मष-कर्दम धोकर उसे नवीन जीवन-चैतन्य के सौंदर्य से मंडित कर, मानवीय एवं स्वर्गोपम बनाना है। मानव-अहंता के तुषानल के ताप से बिना झुलसे उसे अपने फूलों के हँसते हुए चरण आगे बढ़ाने हैं, और स्वप्नों की अमूर्त अँगुलियों के कोमलतम स्पर्शों से छुकर भू-मानव के मन की निर्मम जड़ता को द्रवीभूत करना है। साहित्यकार की वाणी की उपयोगिता, महत्ता तथा उत्तरदायित्व इस युग में जितना अधिक बढ़ गया है, उतना शायद इधर मानव इतिहास के किसी युग में नहीं बढ़ा था। आज उसे धरती के विश्वखल जीवन को नए छंद में बाँधना है–मनुष्य की बौद्धिक अनास्थाओं को अतिक्रम कर उसके भीतर नवीन हृदय की रचना करनी है। युग-परिस्थितियों के घोर अंधकार से प्रकाश खींचकर उसे दु:स्वप्नों से आतंकित मानव के मानस-क्षितिज में नया अरुणोदय लाना है।
आज के महासंक्रांति के युग में मुझे प्रतीत होता है कि मेरे भीतर मेरे उदयकाल में जिस किशोर-कवि ने वीणा के गीत गुनगुनाए थे, आज वह अपना सर्वस्व गँवाकर केवल आज के विश्व-जीवन का तथा भविष्य के अंतरिक्ष में मुसकुराती हुई नवीन मानवता का विनम्र स्वर, सौम्य संदेशवाहक एवं दूत-भर रह गया है उसकी क्षीण कंठध्वनि आज के तुमुल कोलाहल में लोगों को सुनाई देगी कि नहीं, मैं नहीं जानता।
विज्ञान और साहित्य–विशेषतः काव्य-साहित्य–ही लोकमंगल का पथ ग्रहण कर, अपनी असीम स्थूल-सूक्ष्म शक्तियों की संभावनाओं से आज मानव-जगत् तथा मन का बहिरंतर रूपांतर एवं पुनर्निर्माण कर इस युग के नरक को नए स्वर्ग का रूप दे सकते हैं, इसमें मुझे रत्ती भर संदेह नहीं। हमारे युवकों तथा छात्रों को मानव-चेतना के नवीन प्रकाश का संदेशवाहक बनकर आज धरती के पथराए मन में अपने नवीन रक्त का संगीत-स्पंदन, तरुण हृदयों के स्वप्नों का जागरण तथा अदम्य प्राणों का सौंदर्य एवं ऐश्वर्य भरना है–मानवता के प्रति वे अपने इस अमूल्य दायित्व को न भूलें।
- पुस्तक : शिल्प और दर्शन प्रथम खंड (पृष्ठ 89)
- रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
- प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
- संस्करण : 1961
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