हिंसा पर दोहे
हिंसा अनिष्ट या अपकार
करने की क्रिया या भाव है। यह मनसा, वाचा और कर्मणा—तीनों प्रकार से की जा सकती है। हिंसा को उद्घाटित करना और उसका प्रतिरोध कविता का धर्म रहा है। इस चयन में हिंसा विषयक कविताओं को शामिल किया गया है।
रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय।
पीर पैगंबर औलिया, कोए न कहइ समुझाय॥
रैदास कहते हैं कि जीव को मारकर भला ख़ुदा की प्राप्ति कैसे हो सकती है, यह बात कोई भी पीर, पैगंबर या औलिया किसी को क्यों नहीं समझाता?
कुंजर चींटी पशू नरे, सब में साहेब एक।
काटे गला खोदाय का, करै सूरमा लेख॥
कोरोना रोना हुआ
चलता हिंसक चाल।
उस पर हिंसक आदमी
भारी मचा वबाल॥
जीव बधन राधन करे, साधन भैरो भूत।
जन्म तुम्हारा मृथा है, श्वान सूकर का पूत॥
गाय की हत्या कहे, महिषी कहे अशुद्ध।
एक हाड़ एक चाम है, एक दहि एक दूध॥
पढ़ि कुरान फ़ाज़िल हुआ, हाफ़िज़ की ऐसी बात।
सांच बिना मैला हुआ, जीव क़ुरबानी खात।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere