वृद्धावस्था पर दोहे
वृद्धावस्था जीवन का
उत्तरार्द्ध है। नीति-वचनों में इस अवस्था में माया से मुक्त होकर परलोक की यात्रा की तैयारी करने का संदेश दिया गया है तो आधुनिक समाजशास्त्रीय विमर्शों में वृद्धों के एकाकीपन और उनकी पारिवारिक-सामजिक उपेक्षा जैसे विषयों पर मनन किया गया है। आत्मपरक मनन में वृद्धावस्था जीवन के जय-पराजय की विवेचना की निमित्त रही है। प्रस्तुत चयन में शामिल कविताएँ इन सभी कोणों से इस विषय को अभिव्यक्त करती हैं।
विरध भइओ सूझै नहीं, काल पहुँचिओ आन।
कहु नानक नर बावरे, किउ न भजै भगवान॥
गई रात, साथी चले, भई दीप-दुति मंद।
जोबन-मदिरा पी चुक्यौ, अजहुँ चेति मति-मंद॥
सुंदर दुःख न मानि तूं, तोहि कहूँ उपदेश।
अब तू कछूक सरम गहि, धौले आये केश॥
सिरु कँपिओ पगु डगमगै, नैन ज्योति ते हीन।
कहु नानक इह विधि भई, तऊ न हरि रस लीन॥
तरु ह्वै रह्यौ क़रार कौ, अब करि कहा क़रार।
उर धरि नंद-कुमार कौ, चरन-कमल सुकुमार॥
हे वृद्ध मनुष्यों! अब तुम नदी किनारे के वृक्ष हो गए हो। तुम अब लोगों के साथ और कितनी नई-नई प्रतिज्ञाएँ करते रहोगे कि हम यह करेंगे और वह करेंगे। अब तुम्हें चाहिए कि तुम संसारी धंधों को छोड़कर श्रीकृष्ण के सुकोमल चरणों का अपने हृदय में ध्यान करो।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere