स्वप्न पर दोहे

सुप्तावस्था के विभिन्न

चरणों में अनैच्छिक रूप से प्रकट होने वाले दृश्य, भाव और उत्तेजना को सामूहिक रूप से स्वप्न कहा जाता है। स्वप्न के प्रति मानव में एक आदिम जिज्ञासा रही है और विभिन्न संस्कृतियों ने अपनी अवधारणाएँ विकसित की हैं। प्रस्तुत चयन में स्वप्न को विषय बनाती कविताओं को शामिल किया गया है।

कदम-कुंज है हौं कबै, श्रीवृंदावन माहिं।

'ललितकिसोरी' लाड़िले, बिहरैंगे तिहिं छाहिं॥

ललितकिशोरी

कब गहवर की गलिन में, फिरिहौं होइ चकोर।

जुगुलचंद-मुख निरखिहौं, नागरि-नवलकिसोर॥

ललितकिशोरी

कब कालिंदी-कूल की, हुवै हौं तरुवर डारि।

'ललितकिसोरी' लाड़िले, झूलै झूला डारि॥

ललितकिशोरी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere