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अष्टछाप पर सवैया

वल्लभाचार्य के पुत्र

विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित ‘अष्टछाप’ कृष्ण काव्यधारा के आठ कवियों का समूह है जिसका मूल संबंध आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित पुष्टिमार्गीय संप्रदाय से है। विट्ठलनाथ द्वारा भगवान श्रीनाथ के ‘अष्ट शृंगार’ की परंपरा भी शुरू की गई थी और श्रीनाथ की भक्ति में दिन-रात रत इन कवियों को ‘अष्टसखा’ कहा जाता था। अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूरदास हैं जिन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति सूरसागर में कृष्ण के बाल-रूप, सखा-रूप तथा प्रेमी-रूप का अत्यंत विस्तृत, सूक्ष्म व मनोग्राही अंकन किया है। यही कारण है कि स्वयं वल्लभ ने सूर को ‘पुष्टिमार्ग का जहाज़’ कहा। आचार्य शुक्ल भी कहते हैं, ‘‘आचार्यों की छाप लगी आठ कवियों की जो वीणाएँ कृष्ण माधुरी के गान में प्रवृत्त हुईं, उनमें सर्वाधिक मधुर, सरस व मादक स्वर अंधे गायक सूर की वीणा का था।’’ अष्टछाप में सूरदास के अतिरिक्त नंददास और कुंभनदास भी साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने गए हैं । अष्टछाप का न सिर्फ कृष्ण काव्य-परंपरा में बल्कि संपूर्ण हिंदी काव्य में अनूठा स्थान है। इन कवियों ने ब्रज भाषा में निहित गंभीर कलात्मकता और संगीतात्मक तत्त्व को जो ऊँचाई प्रदान की, वह किसी भी माधुर्य-भाव की कविता के लिए अनुकरणीय है।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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