वासुदेवशरण अग्रवाल के निबंध
संस्कृति का स्वरूप
संस्कृति की प्रवृत्ति महाफल देनेवाली होती है। सांस्कृतिक कार्य के छोटे से बीज से बहुत फल देनेवाला बड़ा वृक्ष बन जाता है। सांस्कृतिक कार्य कल्पवृक्ष की तरह फलदायी होते हैं। अपने ही जीवन की उन्नति, विकास और आनंद के लिए हमें अपनी संस्कृति की सुध लेनी चाहिए।
अपनी जनता अपनी पृथिवी
अपने देश में अपना राज्य स्थापित हुआ है—इसी की संज्ञा स्वराज्य है। स्वराज्य की व्याख्या नाना रूपों में की जा सकती है। अपनी भाषा हो अपनी संस्कृति हो, जीवन का अपना प्रकार हो, अपने आर्दश हो और अपना शिष्टाचार हो, सदाचार हो—ये सब स्वराज्य के सुंदर फूल हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere